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धन की तीन गति – Three ways of Money

मोहवश संसार के भोगों में फँसाकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले पिता-माता तो बहुत होते हैं, परंतु अज्ञान के बन्धन से छूटने का सरल उपाय बतलाने वाले तो आप-सरीखे पिता विरले ही होते हैं।

दक्षिण में पुलिवेंदला के समीप पापघ्नी नदी के तट पर एक छोटे से गाँव में बेंकट नामक एक ब्राह्मण निवास करता था।

ब्राह्मण भगवान् श्रीरंगनाथजी का बड़ा भक्त था, वह दिन-रात भगवान् के पवित्र नाम का जप करता।

ब्राह्मण की पत्नी का नाम था रमाया, वह भी पति की भाँति ही भगवान् का भजन किया करती थी।

माता-पिता मर गये थे और कोई संतान थी नहीं, इसलिये घर में ब्राह्मण, ब्राह्मणी दो ही व्यक्ति थे, दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था, वे अपने व्यवहार-बर्ताव से सदा एक-दूसरे को सुख पहुँचाते रहते थे।

पिता राजपुरोहित थे, इससे उन्हें अपने यजमानों से यथेष्ट धन-संपत्ति मिली थी, वे बहुत ही सदाचारी, विद्वान् भगवदभक्त और ज्ञानी थे।

उन्होंने मरते समय बेंकट से कहा था:-‘बेटा, मेरी पूजा के कमरे से दक्षिण वाली कोठरी में आँगन के बीचों बीच सोने की मोहरों के सात कलश गड़े हैं।

मैंने बड़े परिश्रम से धन कमाया है, मुझे बड़ा दु:ख है कि मैं अपने जीवन में इसका सदुपयोग नहीं कर सका।

बेटा, धन की तीन गति होती है, सबसे उत्तम गति तो वह है कि अपने ही हाथों उसे सत्कार्य के द्वारा भगवान् की सेवा में लगा दिया जाय।

मध्यम गति वह है कि उसे अपने तथा अपनी संतान के शास्त्रविहित सुख भोगार्थ खर्च कर दिया जाय।

और तीसरी अधम गति उस धन की होती है जो न तो भगवान् की सेवा में लगता है और न सुखोपभोग में ही लगता है।

वह गति है उसका दूसरों के द्वारा छीन लिया जाना अथवा अपने या पराये हाथों बुरे कर्मों में खर्च होना।

यदि भगवान् की कृपा से पुत्र सतोगुणी होता है तो मरने के बाद धन सत्कार्य में लग जाता है, नहीं तो वही धन कुपुत्र के द्वारा बुरे-से-बुरे काम- शराब, वेश्या और जुए आदि में लगकर पीढ़ियों तक को नरक पहुँचाने में कारण बनता है।

बेटा, तू सपूत है इससे मुझे विश्वास है कि तू धन का दुरुपयोग नहीं करेगा, मैं चाहता हूँ-इस सारे धन को तू भगवान् की सेवा में लगाकर मुझे शान्ति दे।

बेटा, धन तभी अच्छा है जब कि उससे भगवत्स्वरूप दु:खी प्राणियों की सेवा होती है, केवल इसीलिये धनवानों को भाग्यवान कहा जाता है, नहीं तो, धन के समान बुरी चीज नहीं है।

धन में एक नशा होता है जो मनुष्य के विवेक को हर लेता है और नाना प्रकार से अनर्थ उत्पन्न करके उसे अपराधों के गड्ढे में गिरा देता है।

बेटा, मैं इस बात को जानता था, इसीसे मैंने तुझको आज तक इस धन की बात नहीं बतायी।

मैं चाहता था इसे अपने हाथ से भगवान् की सेवा में लगा दूँ, परंतु संयोग ऐसे बनते गये कि मेरी इच्छा पूरी न हो सकी।

मनुष्य को चाहिये कि वह दान और भजन-जैसे सत्यकार्यों को विचार के भरोसे कल पर न छोड़े, उन्हें तो तुरंत कर ही डाले।

पता नहीं कल क्या होगा, इस ‘कल-कल’ में ही मेरा जीवन बीत गया।

मेरे प्यारे बेंकट, संसार में सभी पिता अपने पुत्र के लिये धन कमाकर छोड़ जाना चाहते हैं, परंतु मैं ऐसा नहीं चाहता।

बेटा, मुझे प्रत्यक्ष दीखता है कि धन से मनुष्य में दुर्बुद्धि उत्पन्न होती है, इससे मैं तुझे अर्थ का धनी देखकर भजन का धनी देखना चाहता हूँ।

इसीलिये तुझसे यह कहता हूँ कि इस सारे धन को तू भगवान् की सेवा में लगा देना।

तेरे निर्वाह के लिये घर में जो कुछ पैतृक संपत्ति है- जमीन है, खेत है और थोड़ी-बहुत यजमानी है, वही काफी है।

जीवन को सादा, संयमी और ब्राह्मणोचित त्याग से संपन्न रखना, सदा सत्य का सेवन करना और करना श्रीरंगनाथ भगवान् का भजन।

इसीसे तू कृतार्थ हो जायगा और इसीसे तू पुरखों को तारने वाला बनेगा, बेटा मेरी इस अन्तिम सीख को याद रखना।’

बेंकट अपने पिता से भी बढ़कर विवेकी था, उसने कहा:- ‘पिताजी आपकी इस सीख का एक-एक अक्षर अनमोल है, सच्चे हितैषी पिता के बिना ऐसी सीख कौन दे सकता है।

मोहवश संसार के भोगों में फँसाकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले पिता-माता तो बहुत होते हैं, परंतु अज्ञान के बन्धन से छूटने का सरल उपाय बतलाने वाले तो आप-सरीखे पिता विरले ही होते हैं।

मुझे यह धन न देकर आपने मेरा बड़ा उपकार किया है, परंतु पिताजी मालूम होता है, मेरी कमजोरी देखकर ही आपने धन की इतनी बुराइयाँ बतलाकर धन को महत्व दिया है।

वस्तुत: धन की ओर भजनानन्दियों का ध्यान ही क्यों जाना चाहिये, धन में और धूल में फर्क ही क्या है?

जो कुछ भी हो-मैं आपकी आज्ञा को सिर चढ़ाता हूँ और आपके संतोष के लिये धन की ओर ध्यान देकर इसे शीघ्र ही भगवान् की सेवा में लगा दूँगा।

अब आप इस धन का ध्यान छोड़कर भगवान् श्रीरंगनाथजी का ध्यान कीजिये और शान्ति के साथ उनके परम धाम में पधारिये।

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मनहूस – Cursed – Inauspicious

एक व्यक्ति के बारे में लोगों ने अफवाह उड़ा रखी थी कि वह मनहूस है

अफवाह थी कि अगर कोई उसका मुख सुबह-सुबह देख ले तो उसे खाना नहीं मिलता, लोग उससे दूर-दूर रहते और सुबह के समय तो उसे देखना नहीं चाहते थे,

उस व्यक्ति ने भी इस अपमान को सहन करना सीख लिया था,इसलिए वह सुबह को कहीं निकलता ही न था, दिन का पहला पहर निकल जाने के बाद ही वह अपने घर से बाहर निकलता था ,

उस राज्य के राजा के कानों तक भी यह बात पहुँची कि मेरे राज्य मे एक ऐसा व्यक्ति है जिसका सुबह-सुबह मुख देखने से दिन भर भोजन नहीं मिलता !!

यह क्या बात हुई, राजा को इस पर यकीन नहीं हुआ

पर ! दरबारी तो ऐसा ही कहते थे,

राजा ने सोचा ऐसा कैसे हो सकता है, मैं स्वयं इस बात को परखकर देखूंगा,

सच्चाई जानने की इच्छा से राजा ने एक शाम उस व्यक्ति को बुलवाया और अपने महल में ही ठहराया,

राजा ने उसके सोने का प्रबंध अपने ही कमरे में एक ओर करा दिया ताकि सुबह उठने पर सबसे पहले उसका ही मुख दे सके,

संयोग की बात है अगले दिन दरबार में एक के बाद एक ऐसी उलझनें आती रहीं कि राजा को कई स्थानों पर जाना पड़ा,

सारा दिन भागते-फिरते बीत गया, ढंग से उसे भोजन न मिला, चलते फिरते जो मिला वही खाना पड़ा !!

थके-हारे राजा ने शाम को सेवकों से अपना प्रिय भोजन पकाने का आदेश दिया, सहसा उसके मुख से निकला पता नहीं आज कैसा मनहूस दिन था कि खाने तक की फुर्सत न मिली,

उसके मुख्य अंगरक्षक ने याद दिला दिया कि महाराज आपने अपने कमरे में मनहूस को टिकाया था, यह उसका ही परिणाम है !!

राजा तो उसे भूल ही गया था, उसे लगा कि सही कहते हैं लोग इसके बारे में. क्रोध में आकर उसने उसे फांसी पर चढ़ा देने का ऐलान कर दिया !!

मनहूस को फांसी पर चढ़ाने ले जाया गया,

नियमानुसार उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उसने राजा से दो मिनट के लिए भेंट की इच्छा जताई,

उसे राजा के पास ले जाया गया, मनहूस ने कहा- “महाराज! मेरा मुँह देखने से आप को शाम तक भोजन नही मिला,

किंतु सुबह-सुबह आपका मुँह देख लेने से तो मुझे मौत ही मिलने वाली है.”

बुरो जो देखण मैं चला , बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल ढूंढा आपना , मुझ सा बुरा न कोय ।।

इतना सुनते ही राजा लज्जित हो गया, उसे अपनी भूल का अहसास हुआ,

उसने उस व्यक्ति से क्षमा मांगी और उसे ही सुबह-सुबह उठाने की जिम्मेदारी सौंप दी ताकि उसके ऊपर से लगा मनहूसियत का लांछन मिट जाए !!

समाज में बहुत से नामकरण बहुत से कलंक हंसी मजाक या द्वेष में शुरू होते हैं और फिर उस व्यक्ति से ऐसे चिपक जाते हैं कि उस अपमान के साथ ही वह अपना जीवन बिता देता है !

हास-परिहास में ही सही किसी के साथ घिनौना मजाक करने से पहले दो बार सोच लीजिएगा कि क्या आपके साथ वह मजाक किया जाए तो आप सहज रूप में स्वीकार कर सकेंगे !!

व्यक्तित्व का निर्माण सबसे जरूरी है, अपने आसपास का माहौल ऐसा बनाइए कि हर उम्र हर वर्ग के लोग जो भी आपकी संगति में आएं, उन्हें आपसे बिछड़ते समय दुख हो, उन्हें लगे कि वे बहुत कुछ मिस करेंगे !!!

धन तो चोर-उचक्के-बेईमान-ठग- वेश्या भी कमा लेती है किसी का भरोसा, किसी के स्नेह, किसी का प्रेम, किसी का आशीर्वाद कमा सके तो वही है असली कमाई !

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Story of Life – कहानी जीवन की

एक धन सम्पन्न व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ रहता था।
पर कालचक्र के प्रभाव से धीरे धीरे वह कंगाल हो गया।
उस की पत्नी ने कहा कि सम्पन्नता के दिनों में तो राजा के यहाँ आपका अच्छा आना जाना था।
क्या विपन्नता में वे हमारी मदद नहीं करेंगे जैसे श्रीकृष्ण ने सुदामा की की थी?
पत्नी के कहने से वह भी सुदामा की तरह राजा के पास गया।

द्वारपाल ने राजा को संदेश दिया कि एक निर्धन व्यक्ति आपसे मिलना चाहता है और स्वयं को आपका मित्र बताता है।
राजा भी श्रीकृष्ण की तरह मित्र का नाम सुनते ही दौड़े चले आए और मित्र को इस हाल में देखकर द्रवित होकर बोले कि मित्र बताओ, मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?
मित्र ने सकुचाते हुए अपना हाल कह सुनाया।

चलो, मै तुम्हें अपने रत्नों के खजाने में ले चलता हूँ।
वहां से जी भरकर अपनी जेब में रत्न भर कर ले जाना।
पर तुम्हें केवल 3 घंटे का समय ही मिलेगा।
यदि उससे अधिक समय लोगे तो तुम्हें खाली हाथ बाहर आना पड़ेगा।
ठीक है, चलो।
वह व्यक्ति रत्नों का भंडार और उनसे निकलने वाले प्रकाश की चकाचौंध देखकर हैरान हो गया।
पर समय सीमा को देखते हुए उसने भरपूर रत्न अपनी जेब में भर लिए।
वह बाहर आने लगा तो उसने देखा कि दरवाजे के पास रत्नों से बने छोटे छोटे खिलौने रखे थे जो बटन दबाने पर तरह तरह के खेल दिखाते थे।
उसने सोचा कि अभी तो समय बाकी है, क्यों न थोड़ी देर इनसे खेल लिया जाए?
पर यह क्या?
वह तो खिलौनों के साथ खेलने में इतना मग्न हो गया कि समय का भान ही नहीं रहा।
उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।
राजा ने कहा- मित्र, निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
चलो, मैं तुम्हें अपने स्वर्ण के खजाने में ले चलता हूँ।
वहां से जी भरकर सोना अपने थैले में भर कर ले जाना।
पर समय सीमा का ध्यान रखना।
ठीक है।

उसने देखा कि वह कक्ष भी सुनहरे प्रकाश से जगमगा रहा था।
उसने शीघ्रता से अपने थैले में सोना भरना प्रारम्भ कर दिया।
तभी उसकी नजर एक घोड़े पर पड़ी जिसे सोने की काठी से सजाया गया था।
अरे! यह तो वही घोड़ा है जिस पर बैठ कर मैं राजा साहब के साथ घूमने जाया करता था।
वह उस घोड़े के निकट गया, उस पर हाथ फिराया और कुछ समय के लिए उस पर सवारी करने की इच्छा से उस पर बैठ गया।
पर यह क्या?
समय सीमा समाप्त हो गई और वह अभी तक सवारी का आनन्द ही ले रहा था।
उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह घोर निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र, निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
चलो, मैं तुम्हें अपने रजत के खजाने में ले चलता हूँ।
वहां से जी भरकर चाँदी अपने ढोल में भर कर ले जाना।
पर समय सीमा का ध्यान अवश्य रखना।
ठीक है।
उसने देखा कि वह कक्ष भी चाँदी की धवल आभा से शोभायमान था।
उसने अपने ढोल में चाँदी भरनी आरम्भ कर दी।
इस बार उसने तय किया कि वह समय सीमा से पहले कक्ष से बाहर आ जाएगा।
पर समय तो अभी बहुत बाकी था।
दरवाजे के पास चाँदी से बना एक छल्ला टंगा हुआ था।
साथ ही एक नोटिस लिखा हुआ था कि इसे छूने पर उलझने का डर है।
यदि उलझ भी जाओ तो दोनों हाथों से सुलझाने की चेष्टा बिल्कुल न करना।
उसने सोचा कि ऐसी उलझने वाली बात तो कोई दिखाई नहीं देती।
बहुत कीमती होगा तभी बचाव के लिए लिख दिया होगा।
देखते हैं कि क्या माजरा है?
बस! फिर क्या था।
हाथ लगाते ही वह तो ऐसा उलझा कि पहले तो एक हाथ से सुलझाने की कोशिश करता रहा।
जब सफलता न मिली तो दोनों हाथों से सुलझाने लगा।
पर सुलझा न सका और उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र, कोई बात नहीं
निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
अभी तांबे का खजाना बाकी है।
चलो, मैं तुम्हें अपने तांबे के खजाने में ले चलता हूँ।
वहां से जी भरकर तांबा अपने बोरे में भर कर ले जाना।
पर समय सीमा का ध्यान रखना।
ठीक है।

मैं तो जेब में रत्न भरने आया था और बोरे में तांबा भरने की नौबत आ गई।
थोड़े तांबे से तो काम नहीं चलेगा।
उसने कई बोरे तांबे के भर लिए।
भरते भरते उसकी कमर दुखने लगी लेकिन फिर भी वह काम में लगा रहा।
विवश होकर उसने आसपास सहायता के लिए देखा।
एक पलंग बिछा हुआ दिखाई दिया।
उस पर सुस्ताने के लिए थोड़ी देर लेटा तो नींद आ गई और अंत में वहाँ से भी खाली हाथ बाहर निकाल दिया गया।

क्या इसी प्रकार हम भी अपने जीवन में अपने साथ कुछ नहीं ले जा पाएंगे?
बचपन खिलौनों के साथ खेलने में, जवानी विवाह के आकर्षण में और गृहस्थी की उलझन में बिता दी।
बुढ़ापे में जब कमर दुखने लगी तो पलंग के सिवा कुछ दिखा नहीं।
समय सीमा समाप्त होने की घंटी बजने वाली है।

इसी लिए संत कहते हैं- सावधान! सावधान!

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How to be Happy? – आनंदित रहने की कला

।। आनंदित रहने की कला ।।

एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म (ईश्वर की खोज) में समय लगाए । राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर अपने गुरु को अपनी समस्याएँ बताते हुए कहा कि उसे राज्य का कोई योग्य वारिस नहीं मिल पाया है । राजा का बच्चा छोटा है, इसलिए वह राजा बनने के योग्य नहीं है । जब भी उसे कोई पात्र इंसान मिलेगा, जिसमें राज्य सँभालने के सारे गुण हों, तो वह राजपाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिए समर्पित कर देगा ।

गुरु ने कहा, “राज्य की बागड़ोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते ? क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है ?”

राजा ने कहा, “मेरे राज्य को आप से अच्छी तरह भला कौन संभल सकता है ? लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागड़ोर आपके हाथों में सौंप देता हूँ ।”

गुरु ने पूछा, “अब तुम क्या करोगे ?”

राजा बोला, “मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूँगा, जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाए ।”

गुरु ने कहा, “मगर अब खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूँगा ।”

राजा बोला, “फिर ठीक है, “मैं कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा, उससे जो भी मिलेगा गुजारा कर लूँगा ।”

गुरु ने कहा, “अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहाँ एक नौकरी खाली है । क्या तुम मेरे यहाँ नौकरी करना चाहोगे ?”

राजा बोला, “कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूँ ।”

गुरु ने कहा, “मेरे यहाँ राजा की नौकरी खाली है । मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना ।”

एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था । अब तो दोनों ही काम हो रहे थे । जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य सँभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था । अब उसे कोई चिंता नहीं थी ।

इस कहानी से समझ में आएगा की वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ ? कुछ भी तो नहीं! राज्य वही, राजा वही, काम वही; दृष्टीकोण बदल गया ।

इसी तरह हम भी जीवन में अपना दृष्टीकोण बदलें । मालिक बनकर नहीं, बल्कि यह सोचकर सारे कार्य करें की, “मैं ईश्वर कि नौकरी कर रहा हूँ” अब ईश्वर ही जाने । और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें। फिर ही आप हर समस्या और परिस्थिति में खुशहाल रह पाएँगे।

आपने देखा भी होगा की नौकरों को कोई चिंता नहीं होती मालिक का चाहे फायदा हो या नुकसान वो मस्त रहते हैं ।

सब छोड़ दो वही जानें!

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आराध्या – The Child Devotee

एक संत ने एक द्वार पर दस्तक दी और आवाज लगाई ” भिक्षां देहि “।

एक छोटी बच्ची बाहर आई और बोली, ‘‘बाबा, हम गरीब हैं, हमारे पास देने को कुछ नहीं है।’’
संत बोले, ‘‘बेटी, मना मत कर, अपने आंगन की धूल ही दे दे।’’
लड़की ने एक मुट्ठी धूल उठाई और भिक्षा पात्र में डाल दी।

शिष्य ने पूछा, ‘‘गुरु जी, धूल भी कोई भिक्षा है? आपने धूल देने को क्यों कहा ?’’

संत बोले, ‘‘बेटे, अगर वह आज ना कह देती तो फिर कभी नहीं दे पाती। आज धूल दी तो क्या हुआ, देने का संस्कार तो पड़ गया। आज धूल दी है, उसमें देने की भावना तो जागी, कल समर्थवान होगी तो फल-फूल भी देगी।’’

जितनी छोटी कथा है निहितार्थ उतना ही विशाल । साथ में आग्रह भी …. दान करते समय दान हमेशा अपने परिवार के छोटे बच्चों के हाथों से दिलवाये जिससे उनमें देने की भावना बचपन से बने।

!! जय जय श्री राधे गोविंद!!

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पालनहार – The Caretaker

मलूकचंद नाम के एक सेठ थे।
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उनका जन्म इलाहाबाद जिले के कड़ा नामक ग्राम में वैशाख मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी को संवत् 1631 में हुआ था।
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पूर्व के पुण्य से वे बाल्यावस्था में तो अच्छे रास्ते चले,
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उनके घर के नजदीक ही एक मंदिर था।
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एक रात्रि को पुजारी के कीर्तन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी।
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सुबह उन्होंने पुजारी जी को खूब डाँटा कि “यह सब क्या है ?”
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पुजारी जी बोलेः “एकादशी का जागरण कीर्तन चल रहा था।”
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मलूकचंद बोलेः “अरे ! क्या जागरण कीर्तन करते हो ? हमारी नींद हराम कर दी।
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अच्छी नींद के बाद व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है, फिर कमाता है तब खाता है।”
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पुजारी जी ने कहाः “मलूकजी ! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है।”
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मलूकचंद बोलेः “कौन खिलाता है ? क्या तुम्हारा भगवान खिलाने आयेगा?”
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पुजारी जी ने कहाः “वही तो खिलाता है।”
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मलूकचंद बोलेः “क्या भगवान खिलाता है ! हम कमाते हैं तब खाते हैं।”
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पुजारी जी ने कहाः “निमित्त होता है तुम्हारा कमाना और पत्नी का रोटी बनाना, बाकी सबको खिलाने वाला, सबका पालनहार तो वह जगन्नियन्ता ही है।”
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मलूकचंद बोलेः “क्या पालनहार-पालनहार लगा रखा है ! बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो।
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क्या तुम्हारा पालने वाला एक-एक को आकर खिलाता है ? हम कमाते हैं तभी तो खाते हैं !”
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पुजारी जी ने कहाः “सभी को वही खिलाता है।”
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मलूकचंद बोलेः “हम नहीं खाते उसका दिया।”
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पुजारी जी ने कहाः “नहीं खाओ तो मारकर भी खिलाता है।”
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मलूकचंद बोलेः “पुजारी जी ! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटों में नहीं खिला पाया तो फिर तुम्हें अपना यह भजन-कीर्तन सदा के लिए बंद करना होगा।”
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पुजारी जी ने कहाः “मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बहुत पहुँच है लेकिन उसके हाथ बढ़े लम्बे हैं।
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जब तक वह नहीं चाहता, तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। आजमाकर देख लेना।”
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पुजारीजी भगवान में प्रीति वाले कोई सात्त्विक भक्त रहें होंगे।
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मलूकचंद किसी घोर जंगल में चले गये और एक विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर चढ़कर बैठ गये कि ‘अब देखें इधर कौन खिलाने आता है।
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चौबीस घंटे बीत जायेंगे और पुजारी की हार हो जायेगी, सदा के लिए कीर्तन की झंझट मिट जायेगी।’
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दो-तीन घंटे के बाद एक अजनबी आदमी वहाँ आया।
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उसने उसी वृक्ष के नीचे आराम किया, फिर अपना सामान उठाकर चल दिया लेकिन अपना एक थैला वहीं भूल गया। भूल गया कहो, छोड़ गया कहो।
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भगवान ने किसी मनुष्य को प्रेरणा की थी अथवा मनुष्यरूप में साक्षात् भगवत्सत्ता ही वहाँ आयी थी, यह तो भगवान ही जानें।
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थोड़ी देर बाद पाँच डकैत वहाँ से पसार हुए। उनमें से एक ने अपने सरदार से कहाः “उस्ताद ! यहाँ कोई थैला पड़ा है।”
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“क्या है ? जरा देखो।” खोलकर देखा तो उसमें गरमागरम भोजन से भरा टिफिन !
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“उस्ताद भूख लगी है। लगता है यह भोजन अल्लाह ताला ने हमारे लिए ही भेजा है।”
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“अरे ! तेरा अल्लाह ताला यहाँ कैसे भोजन भेजेगा ? हमको पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह टिफिन यहाँ रखा होगा अथवा पुलिस का कोई षडयंत्र होगा।
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इधर-उधर देखो जरा कौन रखकर गया है।”
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उन्होंने इधर-उधर देखा लेकिन कोई भी आदमी नहीं दिखा।
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तब डाकुओं के मुखिया ने जोर से आवाज लगायीः “कोई हो तो बताये कि यह थैला यहाँ कौन छोड़ गया है।”
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मलूकचंद ऊपर बैठे-बैठे सोचने लगे कि ‘अगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले पड़ेंगे।’
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वे तो चुप रहे लेकिन जो सबके हृदय की धड़कनें चलाता है, भक्तवत्सल है वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शांत नहीं रहता !
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उसने उन डकैतों को प्रेरित किया कि ‘ऊपर भी देखो।’ उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा।
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डकैत चिल्लायेः “अरे ! नीचे उतर!”
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मलूकचंद बोलेः “मैं नहीं उतरता।”
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“क्यों नहीं उतरता, यह भोजन तूने ही रखा होगा।”
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मलूकचंद बोलेः “मैंने नहीं रखा। कोई यात्री अभी यहाँ आया था, वही इसे यहाँ भूलकर चला गया।”
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“नीचे उतर ! तूने ही रखा होगा जहर-वहर मिलाकर और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है।
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तुझे ही यह भोजन खाना पड़ेगा।”
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अब कौन-सा काम वह सर्वेश्वर किसके द्वारा, किस निमित्त से करवाये अथवा उसके लिए क्या रूप ले यह उसकी मर्जी की बात है। बड़ी गजब की व्यवस्था है उस परमेश्वर की !
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मलूकचंद बोलेः “मैं नीचे नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतई नहीं खाऊँगा।”
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“पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है। अरे ! नीचे उतर, अब तो तुझे खाना ही होगा !”
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मलूकचंद बोलेः “मैं नहीं खाऊँगा,नीचे भी नहीं उतरूँगा।”
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“अरे, कैसे नहीं उतरेगा !” डकैतों के सरदार ने अपने एक आदमी को हुक्म दियाः “इसको जबरदस्ती नीचे उतारो।”
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डकैत ने मलूकचंद को पकड़कर नीचे उतारा।
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“ले, खाना खा।”
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मलूकचंद बोलेः “मैं नहीं खाऊँगा।”
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उस्ताद ने धड़ाक से उनके मुँह पर तमाचा जड़ दिया।
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मलूकचंद को पुजारीजी की बात याद आयी कि ‘नहीं खाओगे तो मारकर भी खिलायेगा।’
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मलूकचंद बोलेः “मैं नहीं खाऊँगा।”
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“अरे,कैसे नहीं खायेगा! इसकी नाक दबाओ और मुँह खोलो।” ,
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डकैतों ने उससे नाक दबायी, मुँह खुलवाया और जबरदस्ती खिलाने लगे।
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वे नहीं खा रहे थे तो डकैत उन्हें पीटने लगे।
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अब मलूकचंद ने सोचा कि ‘ये पाँच हैं और मैं अकेला हूँ। नहीं खाऊँगा तो ये मेरी हड्डी पसली एक कर देंगे।’
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इसलिए चुपचाप खाने लगे और मन- ही-मन कहाः ‘मान गये मेरे बाप ! मारकर भी खिलाता है !
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डकैतों के रूप में आकर खिला चाहे भक्तों के रूप में आकर खिला लेकिन खिलाने वाला तो तू ही है। अपने पुजारी की बात तूने सत्य साबित कर दिखायी।’
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मलूकचंद के बचपन की भक्ति की धारा फूट पड़ी।
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उनको मारपीटकर डकैत वहाँ से चले गये तो मलूकचंद भागे और पुजारी जी के पास आकर बोलेः
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“पुजारी जी ! मान गये आपकी बात कि नहीं खायें तो वह मारकर भी खिलाता है।”
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पुजारी जी बोलेः “वैसे तो कोई तीन दिन तक खाना न खाये तो वह जरूर किसी-न-किसी रूप में आकर खिलाता है…
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लेकिन मैंने प्रार्थना की थी कि ‘तीन दिन की नहीं एक दिन की शर्त रखी है, तू कृपा करना।’
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अगर कोई सच्ची श्रद्धा और विश्वास से हृदयपूर्वक प्रार्थना करता है तो वह अवश्य सुनता है।
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वह तो सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ है। उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।”

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