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सुदर्शन चक्र के भय से भागे दुर्वासा

अम्बरीष बड़े धर्मात्मा राजा थे। उनके राज्य में बड़ी सुख शांति थी। धन, वैभव,राज्य, सुख, अधिकार, लोभ, लालच से दूर निश्चिन्त होकर वह अपना अधिकतर समय ईश्वर भक्ति में लगाते थे। अपनी सारी सम्पदा, राज्य आदि सब कुछ वे भगवान विष्णु की समझते थे। उन्हीं के नाम पर वह सबकी देखभाल करते और स्वयं भगवान के भक्त रूप में सरल जीवन बिताते। दान-पुण्य, परोपकार करते हुए उन्हें ऐसा लगता जैसे वह सब कार्य स्वयं भगवान उनके हाथों से सम्पन्न करा रहे है। उन्हें लगता था कि ये भौतिक सुख-साधना, सामग्री सब एक दिन नष्ट हो जाएगी, पर भगवान की भक्ति, उन पर विश्वास, उन्हें इस लोक, परलोक तथा सर्वत्र उनके साथ रहेगी। अम्बरीष की ऐसी विरक्ति तथा भक्ति से प्रसन्न हो भगवान श्री कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया था।

एक बार की बात है कि अम्बरीष ने एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान व्रत रखने का नियम बनाया। हर द्वादशी को व्रत करते। ब्राह्मणों को भोजन कराते तथा दान करते। उसके पश्चात अन्न, जल ग्रहण कर व्रत का पारण करते। एक बार उन्होंने वर्ष की अंतिम द्वादशी को व्रत की समाप्ति पर भगवान विष्णु की पूजा की। महाभिषेक की विधि से सब प्रकार की सामग्री तथा सम्पत्ति से भगवान का अभिषेक किया तथा ब्राह्मणों, पुरोहितों को भोजन कराया, खूब दान दिया।

ब्राह्मण-देवों की आज्ञा से जब व्रत की समाप्ति पर पारण करने बैठे ही थे तो अचानक महर्षि दुर्वासा आ पधारे। अम्बरीष ने खड़े होकर आदर से उन्हें बैठाया और भोजन करने के लिए प्रार्थना करने लगे।
दुर्वासा ने कहा-“भूख तो बड़ी जोर की लगी है राजन ! पर थोड़ा रुको, मैं नदी में स्नान करके आ रहा हूँ, तब भोजन करूँगा।” ऐसा कहकर दुर्वासा वहा से चले गए। वहां स्नान-ध्यान में इतना डूबे कि उन्हें याद ही न रहा कि अम्बरीष बिना उनको भोजन कराएं अपना व्रत का पारण नहीं करेंगे।

बहुत देर होने लगी। द्वादशी समाप्त होने जा रही थी। द्वादशी के रहते पारण न करने से व्रत खण्डित होता और उधर दुर्वासा को खिलाएं बिना पारण किया नहीं जा सकता था। बड़ी विकट स्थिति थी। अम्बरीष दोनों स्थितियों से परेशान थे। अंत में ब्राह्मणों ने परामर्श दिया कि द्वादशी समाप्त होने में थोड़ा ही समय शेष है। पारण द्वादशी तिथि के अंदर ही होना चाहिए। दुर्वासा अभी नहीं आए। इसीलिए राजन ! आप केवल जल पीकर पारण कर लीजिये। जल पीने से भोजन कर लेने का कोई दोष नहीं लगेगा और द्वादशी समाप्त न होने से व्रत खण्डित भी नहीं होगा।

शास्त्रो के विधान के अनुसार ब्राह्मणों की आज्ञा से उन्होंने व्रत का पारण कर लिया। अभी वह जल पी ही रहे थे कि दुर्वासा आ पहुंचे। दुर्वासा ने देखा कि मुझ ब्राह्मण को भोजन कराएं बिना अम्बरीष ने जल पीकर व्रत का पारण कर लिया। बस फिर क्या था, क्रोध में भरकर शाप देने के लिए हाथ उठाया ही था कि अम्बरीष ने विनयपूर्वक कहा-“ऋषिवर ! द्वादशी समाप्त होने जा रही थी। आप तब तक आए नहीं। वर्ष भर का व्रत खण्डित न हो जाए, इसीलिए ब्राह्मणों ने केवल जल ग्रहण कर पारण की आज्ञा दी थी। जल के सिवा मैने कुछ भी ग्रहण नहीं किया है।”

पर दुर्वासा क्रोधित हो जाने पर तो किसी की सुनते नहीं थे। अपनी जटा से एक बाल उखाड़कर जमीन पर पटक कर कहा-“लो, मुझे भोजन कराए बिना पारण कर लेने का फल भुगतो। इस बाल से पैदा होने वाली कृत्या ! अम्बरीष को खा जा।”

बाल के जमीन पर पड़ते ही एक भयंकर आवाज के साथ कृत्या राक्षसी प्रकट होकर अम्बरीष को खाने के लिए दौड़ी। भक्त पर निरपराध कष्ट आया देख उनकी रक्षा के लिए नियुक्त सुदर्शन चक्र सक्रिय हो उठा। चमक कर चक्राकार घूमते हुए कृत्या राक्षसी को मारा, फिर दुर्वासा की ओर बढ़ा।

भगवान के सुदर्शन चक्र को अपनी ओर आते देख दुर्वासा घबराकर भागे, पर चक्र उनके पीछे लग गया। कहां शाप देकर अम्बरीष को मारने चले थे, कहां उनकी अपनी जान पर आ पड़ी। चक्र से बचने के लिए वे भागने लगे। जहां कही भी छिपने का प्रयास करते, वहीं चक्र उनका पीछा करता।

भागते-भागते ब्रह्मलोक में ब्रह्मा के पास पहुंचे और चक्र से रक्षा करने के लिए गुहार लगाई। ब्रह्मा बोले-“दुर्वासा ! मैं तो सृष्टि को बनाने वाला हूं। किसी की मृत्यु से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। आप शिव के पास जाए, वे महाकाल है। वह शायद आपकी रक्षा करे।”

दुर्वासा शिव के पास आए और अपनी विपदा सुनाई। दुर्वासा की दशा सुनकर शिव को हंसी आ गई। बोले-“दुर्वासा ! तुम सबको शाप ही देते फिरते हो। ऋषि होकर क्रोध करते हो। मैं इस चक्र से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि यह विष्णु का चक्र है, इसलिए अच्छा हो कि तुम विष्णु के पास जाओ। वही चाहे तो अपने चक्र को वापस कर सकते है।”

दुर्वासा की जान पर आ पड़ी थी। भागे-भागे भगवान विष्णु के पास पहुंचे। चक्र भी वहां चक्कर लगाता पहुंचा। दुर्वासा ने विष्णु से अपनी प्राण-रक्षा की प्रार्थना की। विष्णु बोले-“दुर्वासा ! तुमने तप से अब तक जितनी भी शक्ति प्राप्त की, वह सब क्रोध तथा शाप देने में नष्ट करते रहे। तनिक सी बात पर नाराज होकर झट से शाप दे देते हो। तुम तपस्वी हो। तपस्वी का गुण-धर्म क्षमा करना होता है। तुम्हीं विचार करो, अम्बरीष का क्या अपराध था ? मैं तो अपने भक्तो के ह्रदय में रहता हूं। अम्बरीष के प्राण पर संकट आया तो मेरे चक्र ने उनकी रक्षा की। अब यह चक्र तो मेरे हाथ से निकल चुका है इसलिए जिसकी रक्षा के लिए यह तुम्हारे पीछे घूम रहा है, अब उसी की शरण में जाओ। केवल अम्बरीष ही इसे रोक सकते है।”

दुर्वासा भागते-भागते थक गए। भगवान विष्णु ने दुर्वासा को स्वयं नहीं बचाया, बल्कि उपाय बताया। दुर्वासा उल्टे पाँव फिर भागे और आए अम्बरीष के पास। अम्बरीष अभी भी बिना अन्न ग्रहण किए, उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दुर्वासा को देखते ही उनको प्रणाम कर बोले-“मुनिदेव ! मैं तब से आपकी प्रतीक्षा में बिना अन्न ग्रहण किए केवल वही जल पिया है, आप कहां चले गए थे ? दुर्वासा ने चक्र की ओर इशारा करके कहा-“अम्बरीष ! पहले इससे मेरी जान बचाओ। यह मेरे पीछे पड़ा है। तीनो लोको में मैं भागता फिरा, पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश किसी ने मेरी रक्षा नहीं की। अब तुम ही इस चक्र से मेरे प्राण बचाओ।”

अम्बरीष हाथ जोड़कर बोले-“मुनिवर ! आप अपना क्रोध शांत करे और मुझे क्षमा करे। भगवान विष्णु का यह चक्र भी आपको क्षमा करेगा।” अम्बरीष के इस कहते ही चक्र अन्तर्धान हो गया।

।। जय श्रीद्वारकाधीश नमः ।
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रिक्शे वाला – Rickshaw Puller

एक बार एक अमीर आदमी कहीं जा रहा होता है तो उसकी कार ख़राब हो जाती है। उसका कहीं पहुँचना बहुत जरुरी होता है। उसको दूर एक पेड़ के नीचे एक रिक्शा दिखाई देता है। वो उस रिक्शा वाले पास जाता है। वहा जाकर देखता है कि रिक्शा वाले ने अपने पैर हैंडल के ऊपर रखे होते है। पीठ उसकी अपनी सीट पर होती है और सिर जहा सवारी बैठती है उस सीट पर होती है ।

और वो मज़े से लेट कर गाना गुन-गुना रहा होता है। वो अमीर व्यक्ति रिक्शा वाले को ऐसे बैठे हुए देख कर बहुत हैरान होता है कि एक व्यक्ति ऐसे बेआराम जगह में कैसे रह सकता है, कैसे खुश रह सकता है। कैसे गुन-गुना सकता है।

वो उसको चलने के लिए बोलता है। रिक्शा वाला झट से उठता है और उसे 20 रूपए देने के लिए बोलता है।

रास्ते में वो रिक्शा वाला वही गाना गुन-गुनाते हुए मज़े से रिक्शा खींचता है। वो अमीर व्यक्ति एक बार फिर हैरान कि एक व्यक्ति 20 रूपए लेकर इतना खुश कैसे हो सकता है। इतने मज़े से कैसे गुन-गुना सकता है। वो थोडा इर्ष्यापूर्ण हो जाता है और रिक्शा वाले को समझने के लिए उसको अपने बंगले में रात को खाने के लिए बुला लेता है। रिक्शा वाला उसके बुलावे को स्वीकार कर देता है।

वो अपने हर नौकर को बोल देता है कि इस रिक्शा वाले को सबसे अच्छे खाने की सुविधा दी जाए। अलग अलग तरह के खाने की सेवा हो जाती है। सूप्स, आइस क्रीम, गुलाब जामुन सब्जियां यानि हर चीज वहाँ मौजूद थी।

वो रिक्शा वाला खाना शुरू कर देता है, कोई प्रतिक्रिया, कोई घबराहट बयान नहीं करता। बस वही गाना गुन-गुनाते हुए मजे से वो खाना खाता है। सभी लोगो को ऐसे लगता है जैसे रिक्शा वाला ऐसा खाना पहली बार नहीं खा रहा है। पहले भी कई बार खा चुका है। वो अमीर आदमी एक बार फिर हैरान एक बार फिर इर्ष्यापूर्ण कि कोई आम आदमी इतने ज्यादा तरह के व्यंजन देख के भी कोई हैरानी वाली प्रतिक्रिया क्यों नहीं देता और वैसे कैसे गुन-गुना रहा है जैसे रिक्शे में गुन-गुना रहा था।

यह सब कुछ देखकर अमीर आदमी की इर्ष्या और बढती है।
अब वह रिक्शे वाले को अपने बंगले में कुछ दिन रुकने के लिए बोलता है। रिक्शा वाला हाँ कर देता है।

उसको बहुत ज्यादा इज्जत दी जाती है। कोई उसको जूते पहना रहा होता है, तो कोई कोट। एक बेल बजाने से तीन-तीन नौकर सामने आ जाते है। एक बड़ी साइज़ की टेलीविज़न स्क्रीन पर उसको प्रोग्राम दिखाए जाते है। और एयर-कंडीशन कमरे में सोने के लिए बोला जाता है।

अमीर आदमी नोट करता है कि वो रिक्शा वाला इतना कुछ देख कर भी कुछ प्रतिक्रिया नहीं दे रहा। वो वैसे ही साधारण चल रहा है। जैसे वो रिक्शा में था वैसे ही है। वैसे ही गाना गुन-गुना रहा है जैसे वो रिक्शा में गुन-गुना रहा था।

अमीर आदमी के इर्ष्या बढ़ती चली जाती है और वह सोचता है कि अब तो हद ही हो गई। इसको तो कोई हैरानी नहीं हो रही, इसको कोई फरक ही नहीं पढ़ रहा। ये वैसे ही खुश है, कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दे रहा।

अब अमीर आदमी पूछता है: आप खुश हैं ना?
वो रिक्शा वाला कहते है: जी साहेब बिलकुल खुश हूँ।

अमीर आदमी फिर पूछता है: आप आराम में हैं ना ?
रिक्शा वाला कहता है: जी बिलकुल आरामदायक हूँ।

अब अमीर आदमी तय करता है कि इसको उसी रिक्शा पर वापस छोड़ दिया जाये। वहाँ जाकर ही इसको इन बेहतरीन चीजो का एहसास होगा। क्योंकि वहाँ जाकर ये इन सब बेहतरीन चीजो को याद करेगा।

अमीर आदमी अपने सेक्रेटरी को बोलता है की इसको कह दो कि आपने दिखावे के लिए कह दिया कि आप खुश हो, आप आरामदायक हो। लेकिन साहब समझ गये है कि आप खुश नहीं हो आराम में नहीं हो। इसलिए आपको उसी रिक्शा के पास छोड़ दिया जाएगा।”

सेक्रेटरी के ऐसा कहने पर रिक्शा वाला कहता है: ठीक है सर, जैसे आप चाहे, जब आप चाहे।

उसे वापस उसी जगह पर छोड़ दिया जाता है जहाँ पर उसका रिक्शा था।

अब वो अमीर आदमी अपने गाड़ी के काले शीशे ऊँचे करके उसे देखता है।

रिक्शे वाले ने अपनी सीट उठाई बैग में से काला सा, गन्दा सा, मेला सा कपड़ा निकाला, रिक्शा को साफ़ किया, मज़े में बैठ गया और वही गाना गुन-गुनाने लगा।

अमीर आदमी अपने सेक्रेटरी से पूछता है: “कि चक्कर क्या है। इसको कोई फरक ही नहीं पड रहा इतनी आरामदायक वाली, इतनी बेहतरीन जिंदगी को ठुकरा के वापस इस कठिन जिंदगी में आना और फिर वैसे ही खुश होना, वैसे ही गुन-गुनाना।”

फिर वो सेक्रेटरी उस अमीर आदमी को कहता है: “सर यह एक कामियाब इन्सान की पहचान है। एक कामियाब इन्सान वर्तमान में जीता है, उसको मनोरंजन (enjoy) करता है और बढ़िया जिंदगी की उम्मीद में अपना वर्तमान खराब नहीं करता।

अगर उससे भी बढ़िया जिंदगी मिल गई तो उसे भी वेलकम करता है उसको भी मनोरंजन (enjoy) करता है उसे भी भोगता है और उस वर्तमान को भी ख़राब नहीं करता। और अगर जिंदगी में दुबारा कोई बुरा दिन देखना पड़े तो वो भी उस वर्तमान को उतने ही ख़ुशी से, उतने ही आनंद से, उतने ही मज़े से, भोगता है मनोरंजन करता है और उसी में आनंद लेता है।”

कामयाबी आपके ख़ुशी में छुपी है, और अच्छे दिनों की उम्मीद में अपने वर्तमान को ख़राब नहीं करें। और न ही कम अच्छे दिनों में ज्यादा अच्छे दिनों को याद करके अपने वर्तमान को ख़राब करना है।

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संगति, परिवेश और भाव – Company, Attire and Devotion

एक राजा अपनी प्रजा का भरपूर ख्याल रखता था. राज्य में अचानक चोरी की शिकायतें बहुत आने लगीं. कोशिश करने से भी चोर पकड़ा नहीं गया.
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हारकर राजा ने ढींढोरा पिटवा दिया कि जो चोरी करते पकडा जाएगा उसे मृत्युदंड दिया जाएगा. सभी स्थानों पर सैनिक तैनात कर दिए गए. घोषणा के बाद तीन-चार दिनों तक चोरी की कोई शिकायत नही आई.
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उस राज्य में एक चोर था जिसे चोरी के सिवा कोई काम आता ही नहीं था. उसने सोचा मेरा तो काम ही चोरी करना है. मैं अगर ऐसे डरता रहा तो भूखा मर जाउंगा. चोरी करते पकडा गया तो भी मरुंगा, भूखे मरने से बेहतर है चोरी की जाए.
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वह उस रात को एक घर में चोरी करने घुसा. घर के लोग जाग गए. शोर मचाने लगे तो चोर भागा. पहरे पर तैनात सैनिकों ने उसका पीछा किया. चोर जान बचाने के लिए नगर के बाहर भागा.
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उसने मुडके देखा तो पाया कि कई सैनिक उसका पीछा कर रहे हैं. उन सबको चमका देकर भाग पाना संभव नहीं होगा. भागने से तो जान नहीं बचने वाली, युक्ति सोचनी होगी.
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चोर नगर से बाहर एक तालाब किनारे पहुंचा. सारे कपडे उतारकर तालाब मे फेंक दिया और अंधेरे का फायदा उठाकर एक बरगद के पेड के नीचे पहुंचा.
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बरगद पर बगुलों का वास था. बरगद की जड़ों के पास बगुलों की बीट पड़ी थी. चोर ने बीट उठाकर उसका तिलक लगा लिया ओर आंख मूंदकर ऐसे स्वांग करने बैठा जैसे साधना में लीन हो.
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खोजते-खोजते थोडी देर मे सैनिक भी वहां पहुंच गए पर उनको चोर कहीं नजर नहीं आ रहा था. खोजते खोजते उजाला हो रहा था ओर उनकी नजर बाबा बने चोर पर पडी.
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सैनिकों ने पूछा- बाबा इधर किसी को आते देखा है. पर ढोंगी बाबा तो समाधि लगाए बैठा था. वह जानता था कि बोलूंगा तो पकडा जाउंगा सो मौनी बाबा बन गया और समाधि का स्वांग करता रहा.
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सैनिकों को कुछ शंका तो हुई पर क्या करें. कही सही में कोई संत निकला तो ? आखिरकार उन्होंने छुपकर उसपर नजर रखना जारी रखा. यह बात चोर भांप गया. जान बचाने के लिए वह भी चुपचाप बैठा रहा.
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एक दिन, दो दिन, तीन दिन बीत गए बाबा बैठा रहा. नगर में चर्चा शुरू हो गई की कोई सिद्ध संत पता नही कितने समय से बिना खाए-पीए समाधि लगाए बैठै हैं. सैनिकों को तो उनके अचानक दर्शऩ हुए हैं.
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नगर से लोग उस बाबा के दर्शन को पहुंचने लगे. भक्तों की अच्छी खासी भीड़ जमा होने लगी. राजा तक यह बात पहुंच गई. राजा स्वयं दर्शन करने पहुंचे. राजा ने विनती की आप नगर मे पधारें और हमें सेवा का सौभाग्य दें.
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चोर ने सोचा बचने का यही मौका है. वह राजकीय अतिथि बनने को तैयार हो गया. सब लोग जयघोष करते हुए नगर में लेजा कर उसकी सेवा सत्कार करने लगे.
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लोगों का प्रेम और श्रद्धा भाव देखकर ढोंगी का मन परिवर्तित हुआ. उसे आभास हुआ कि यदि नकली में इतना मान-संम्मान है तो सही में संत होने पर कितना सम्मान होगा. उसका मन पूरी तरह परिवर्तित हो गया और चोरी त्यागकर संन्यासी हो गया.
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संगति, परिवेश और भाव इंसान में अभूतपूर्व बदलाव ला सकता है. रत्नाकर डाकू को गुरू मिल गए तो प्रेरणा मिली और वह आदिकवि हो गए. असंत भी संत बन सकता है, यदि उसे राह दिखाने वाला मिल जाए.
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अपनी संगति को शुद्ध रखिए, विकारों का स्वतः पलायन आरंभ हो जाएगा.

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अच्छाई-बुराई – Good and Bad

एक बार बुरी आत्माओं ने भगवान से शिकायत की कि उनके साथ इतना बुरा व्यवहार क्यों किया जाता है, जबकी अच्छी आत्माएँ इतने शानदार महल में रहती हैं और हम सब खंडहरों में, आखिर ये भेदभाव क्यों है, जबकि हम सब भी आप ही की संतान हैं।

भगवान ने उन्हें समझाया- ”मैंने तो सभी को एक जैसा ही बनाया पर तुम ही अपने कर्मो से बुरी आत्माएं बन गयीं। सो वैसा ही तुम्हारा घर भी हो गया।“

भगवान के समझाने पर भी बुरी आत्माएँ भेदभाव किये जाने की शिकायत करतीं रहीं और उदास होकर बैठ गयी।

इसपर भगवान ने कुछ देर सोचा और सभी अच्छी-बुरी आत्माओं को बुलाया और बोले- “बुरी आत्माओं के अनुरोध पर मैंने एक निर्णय लिया है, आज से तुम लोगों को रहने के लिए मैंने जो भी महल या खँडहर दिए थे वो सब नष्ट हो जायेंगे, और अच्छी और बुरी आत्माएं अपने अपने लिए दो अलग-अलग शहरों का निर्माण नए तरीके से स्वयं करेंगी।”

तभी एक आत्मा बोली- “ लेकिन इस निर्माण के लिए हमें ईंटें कहाँ से मिलेंगी?”

भगवान बोले- “जब पृथ्वी पर कोई इंसान अच्छा या बुरा कर्म करेगा तो यहाँ पर उसके बदले में ईंटें तैयार हो जाएंगी। सभी ईंटें मजबूती में एक सामान होंगी, अब ये तुम लोगों को तय करना है कि तुम अच्छे कार्यों से बनने वाली ईंटें लोगे या बुरे कार्यों से बनने वाली ईंटें!”

बुरी आत्माओं ने सोचा, पृथ्वी पर बुराई करने वाले अधिक लोग हैं इसलिए अगर उन्होंने बुरे कर्मों से बनने वाली ईंटें ले लीं तो एक विशाल शहर का निर्माण हो सकता है, और उन्होंने भगवान से बुरे कर्मों से बनने वाली ईंटें मांग ली।

दोनों शहरों का निर्माण एक साथ शुरू हुआ, पर कुछ ही दिनों में बुरी आत्माओं का शहर वहाँ रूप लेने लगा, उन्हें लगातार ईंटों के ढेर के ढेर मिलते जा रहे थे और उससे उन्होंने एक शानदार महल बहुत जल्द बना भी लिया। वहीँ अच्छी आत्माओं का निर्माण धीरे-धीरे चल रहा था, काफी दिन बीत जाने पर भी उनके शहर का केवल एक ही हिस्सा बन पाया था।

कुछ दिन और ऐसे ही बीते, फिर एक दिन अचानक एक अजीब सी घटना घटी। बुरी आत्माओं के शहर से ईंटें गायब होने लगीं… दीवारों से, छतों से, इमारतों की नीवों से,… हर जगह से ईंटें गायब होने लगीं और देखते ही देखते उनका पूरा शहर खंडहर का रूप लेने लगा।

परेशान आत्माएं तुरंत भगवान के पास भागीं और पुछा- “हे प्रभु! हमारे महल से अचानक ये ईंटें क्यों गायब होने लगीं …हमारा महल और शहर तो फिर से खंडहर बन गया?”

भगवान मुस्कुराये और बोले- “ईंटें गायब होने लगीं!! अच्छा! दरअसल जिन लोगों ने बुरे कर्म किए थे अब वे उनका परिणाम भुगतने लगे हैं यानी अपने बुरे कर्मों से उबरने लगीं हैं उनके बुरे कर्म और उनसे उपजी बुराइयाँ नष्ट होने लगे हैं। सो उनकी बुराइयों से बनी ईंटें भी नष्ट होने लगीं हैं। आखिर को जो आज बना है वह कल नष्ट भी होगा ही। अब किसकी आयु कितनी होगी ये अलग बात है।“

इस तरह से बुरी आत्माओ ने अपना सिर पकड़ लिया और सिर झुका के वहा से चली गई|

इस कहानी से हमें कई ज़रूरी बातें सीखने को मिलती है, जो हम बचपन से सुनते भी आ रहे हैं पर शायद उसे इतनी गंभीरता से नहीं लेते:
बुराई और उससे होने वाला फायदा बढता तो बहुत तेजी से है। परंतु नष्ट भी उतनी ही तेजी से होता है।
वहीँ सच्चाई और अच्छाई से चलने वाले धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं पर उनकी सफलता स्थायी होती है. अतः हमें हमेशा सच्चाई की बुनियाद पर अपने सफलता की इमारत खड़ी करनी चाहिए, झूठ और बुराई की बुनियाद पर तो बस खंडहर ही बनाये जा सकते हैं।

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भक्त रविदास और कंगन – Bhakt Ravidas and Bracelet

हमेशा की तरह सिमरन करते हुए अपने कार्य में तत्लीन रहने वाले भक्त रविदास जी आज भी अपने जूती गांठने के कार्य में ततलीन थे

अरे, मेरी जूती थोड़ी टूट गई है, इसे गाँठ दो, राह गुजरते एक पथिक ने भगत रविदास जी से थोड़ा दूर खड़े हो कर कहा

आप कहाँ जा रहे हैं श्रीमान? भगत जी ने पथिक से पूछा

मैं माँ गंगा स्नान करने जा रहा हूँ, तुम चमड़े का काम करने वाले क्या जानो गंगा जी के दर्शन और स्नान का महातम,

सत्य कहा श्रीमान, हम मलिन और नीच लोगो के स्पर्श से पावन गंगा भी अपवित्र हो जाएगी, आप भाग्यशाली हैं जो तीर्थ स्नान को जा रहे हैं, भगत जी ने कहा

सही कहा, तीर्थ स्नान और दान का बहुत महातम है,

ये लो अपनी मेहनत की कीमत एक कोड़ी, और मेरी जूती मेरी तरफ फेंको

आप मेरी तरफ कौड़ी को न फेंकिए, ये कौड़ी आप गंगा माँ को गरीब रविदास की भेंट कह कर अर्पित कर देना

पथिक अपने राह चला गया, रविदास पुनः अपने कार्य में लग गए

अपने स्नान ध्यान के बाद जब पथिक गंगा दर्शन कर घर वापिस चलने लगा तो उसे ध्यान आया

अरे उस शुद्र की कौड़ी तो गंगा जी के अर्पण की नही, नाहक उसका भार मेरे सिर पर रह जाता

ऐसा कह कर उसने कौड़ी निकाली और गंगा जी के तट पर खड़ा हो कर कहा

हे माँ गंगा, रविदास की ये भेंट स्वीकार करो

तभी गंगा जी से एक हाथ प्रगट हुआ और आवाज आई

लाओ भगत रविदास जी की भेंट मेरे हाथ पर रख दो

हक्के बक्के से खड़े पथिक ने वो कौड़ी उस हाथ पर रख दी

हैरान पथिक अभी वापिस चलने को था कि पुनः उसे वही स्वर सुनाई दिया

पथिक, ये भेंट मेरी तरफ से भगत रविदास जी को देना

गंगा जी के हाथ में एक रत्न जड़ित कंगन था,

हैरान पथिक वो कंगन ले कर अपने गंतव्य को चलना शुरू किया

उसके मन में ख्याल आया

रविदास को क्या मालूम, कि माँ गंगा ने उसके लिए कोई भेंट दी है,

अगर मैं ये बेशकीमती कंगन यहाँ रानी को भेंट दूँ तो राजा मुझे धन दौलत से मालामाल कर देगा

ऐसा सोच उसने राजदरबार में जा कर वो कंगन रानी को भेंट कर दिया, रानी वो कंगन देख कर बहुत खुश हुई, अभी वो अपने को मिलने वाले इनाम की बात सोच ही रहा था कि रानी ने अपने दूसरे हाथ के लिए भी एक समान दूसरे कंगन की फरमाइश राजा से कर दी

पथिक, हमे इसी तरह का दूसरा कंगन चाहिए, राजा बोला

आप अपने राज जौहरी से ऐसा ही दूसरा कंगन बनवा लें, पथिक बोला

पर इस में जड़े रत्न बहुत दुर्लभ हैं, ये हमारे राजकोष में नहीं हैं,

अगर पथिक इस एक कंगन का निर्माता है तो दूसरा भी बना सकता है, राजजोहरी ने राजा से कहा

पथिक अगर तुम ने हमें दूसरा कंगन ला कर नहीं दिया तो हम तुम्हे मृत्युदण्ड देंगे, राजा गुर्राया

पथिक की आँखों से आंसू बहने लगे

भगत रविदास से किया गया छल उसके प्राण लेने वाला था

पथिक ने सारा सत्य राजा को कह सुनाया और राजा से कहा

केवल एक भगत रविदास जी ही हैं जो गंगा माँ से दूसरा कंगन ले कर राजा को दे सकते हैं

राजा पथिक के साथ भगत रविदास जी के पास आया

भगत जी सदा की तरह सिमरन करते हुए अपने दैनिक कार्य में तत्तलीन थे

पथिक ने दौड़ कर उनके चरण पकड़ लिए और उनसे अपने जीवन रक्षण की प्रार्थना की

भगत रविदास जी ने राजा को निकट बुलाया और पथिक को जीवनदान देने की विनती की

राजा ने जब पथिक के जीवन के बदले में दूसरा कंगन माँगा

तो भगत रविदास जी ने अपनी नीचे बिछाई चटाई को हटा कर राजा से कहा

आओ और अपना दूसरा कंगन पहचान लो

राजा जब निकट गया तो क्या देखता है

भगत जी के निकट जमीन पारदर्शी हो गई है और उस में बेशकीमती रत्न जड़ित असंख्य ही कंगन की धारा अविरल बह रही है

पथिक और राजा भगत रविदास जी के चरणों में गिर गए और उनसे क्षमा याचना की

प्रभु के रंग में रंगे महात्मा लोग, जो अपने दैनिक कार्य करते हुए भी प्रभु का नाम सिमरन करते हैं उन से पवित्र और बड़ा कोई तीर्थ नही,

उन्हें तीर्थ वेद शास्त्र क्या व्यख्यान करेंगे उनका जीवन ही वेद है उनके दर्शन ही तीर्थ है।

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तृष्णा – Greed

नीयत में होगी खोट तो भगवान करेंगे चोटः

कुछ धनी किसानों ने मिलकर खेती के लिए एक कुँआ बनवाया. सबकी अपनी-अपनी बारी बंधी थी. कुंआ एक निर्धन किसान के खेतों के पास था लेकिन उसे पानी नहीं मिलता था. धनी किसानों ने खेतों में बीज बोकर सिंचाई शुरू कर दी. निर्धन किसान बीज भी नहीं बो पा रहा था. उसने धनवानों की बड़ी आरजू मिन्नत की लेकिन एक न सुनी गई.

निर्धन बरसात से पहले खेत में बीज भी न बो पाया तो भूखा मर जाएगा. यह सोचकर अमीर किसानों ने उस पर दया की और बीज बोने के लिए एक रात तीन घंटे की सिंचाई का मौका दे दिया. उसे एक रात के लिए ही मौका मिला था. वह रात बेकार न जाए यह सोचकर एक किसान ने मजबूत बैलों का एक जोड़ा भी दे दिया ताकि वह पर्याप्त पानी निकाल ले

निर्धन तो जैसे इस मौके की तलाश में था. उसने सोचा इन लोगों ने उसे बहुत सताया है. आज तीन घंटे में ही इतना पानी निकाल लूंगा कि कुछ बचेगा ही नहीं. इसी नीयत से उसने बैलों को जोता पानी निकालने लगा. गाधी पर बैठा और बैलों को चलाकर पानी निकालने लगा. पानी निकालने का नियम है कि बीच-बीच में हौज और नाली की जांच कर लेनी चाहिए कि पानी खेतों तक जा रहा है या नहीं. लेकिन उसके मन में तो खोट था. उसने सोचा हौज और नाली सब दुरुस्त ही होंगी. बैलों को छोड़कर गया तो वे खड़े हो जाएंगे. उसे तो कुँआ खाली करना था. ताबडतोड़ बैलों परडंडे बरसाता रहा. डंडे के चोट से बैल भागते रहे और पानी निकलता रहा.

तीन घंटे बाद दूसरा किसान पहुंच गया जिसकी पानी निकालने की बारी थी. उसने बैल खोल लिए और अपने खेत देखने चला. वहां पहुंचकर वह छाती पीटकर रोने लगा. खेतों में तो एक बूंद पानी नहीं पहुंचा था. उसने हौज और नाली की तो चिंता ही नहीं की थी. सारा पानी उसके खेत में जाने की बजाय कुँए के पास एक गड़ढ़े में जमा होता रहा.

अंधेरे में वह किसान खुद उस गडढ़े में गिर गया. पीछे-पीछे आते बैल भी उसके ऊपर गिर पड़े. वह चिल्लाया तो दूसरा किसान भागकर आया और उसे किसी तरह निकाला. दूसरे किसान ने कहा- परोपकार के बदले नीयत खराब रखने की यही सजा होती है. तुम कुँआ खाली करना चाहते थे. यह पानी तो रिसकर वापस कुँए में चला जाएगा लेकिन तुम्हें अब कोई फिर कभी न अपने बैल देगा, न ही कुँआ.

तृष्णा यही है. मानव देह बड़ी मुश्किल सेमिलता है. इंद्रियां रूपी बैल मिले हैं हमें अपना जीवन सत्कर्मों से सींचने के लिए लेकिन तृष्णा में फंसा मन सारी बेईमानी पर उतर आता है. परोपकार को भी नहीं समझता ईश्वर से क्या छुपा. वह कर्मों का फल देते हैं लेकिन फल देने से पहले परीक्षा की भी परंपरा है. उपकार के बदले अपकार नहीं बल्कि ऋणी होना चाहिए तभी प्रभु आपको इतना क्षमतावान बनाएंगे कि आप किसीपर उपकार का सुख ले सकें.जो कहते हैं कि लाख जतन से भी प्रभु कृपालु नहीं हो रहे, उन्हें विचारना चाहिए कि कहीं उनके कर्मों में कोई ऐसा दोष तो नहीं जिसकी वह किसान की तरह अनदेखी कर रहे हैं और भक्ति स्वीकर नहीं हो रही।

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कृष्णभक्त मीर माधव – Meer Madhav

बहुत समय पहले की बात हैं मुल्तान ( पंजाब ) का रहने वाले एक ब्राह्मण उत्तर भारत में आकर बस गये
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जिस घर में वह रहता थे । उसकी ऊपरी मंजिल में कोई मुग़ल-दरबारी रहता था।
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प्रातः नित्य ऐसा संयोग बन जाता की जिस समय ब्राह्मण नीचे गीतगोविन्द के पद गाया करते उसी समय मुग़ल ऊपर से उतरकर दरबार को जाया करता था।
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ब्राह्मण के मधुर स्वर तथा गीतगोविन्द की ललित आभा से आकृष्ट होकर वह सीढ़ियों में ही कुछ देर रुककर सुना करता था।
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जब ब्राह्मण को इस बात का पता चला तो उसने उस मुग़ल से पूछा की – “सरकार ! आप इन पदों को सुनते हैं पर कुछ समझ में भी आता है ?
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मुग़ल, समझ में तो एक लफ्ज (अक्षर) भी नही आता पर न जाने क्यों उन्हें सुनकर मेरा दिल गिरफ्त हो जाता है। तबियत होती है की खड़े खड़े इन्हें ही सुनता रहूं ।
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आखिर किस किताब में से आप इन्हें गाया करते है ?
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ब्राह्मण, सरकार ! “गीतगोविन्द” के पद है ये, यदि आप पढ़ना चाहे तो मैं आपको पढ़ा दूंगा।
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इस प्रस्ताब को मुग़ल ने स्वीकार कर लिया और कुछ ही दिन में उन्हें सीखकर स्वयं उन्हें गाने लग गया।
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एक दिन ब्राह्मण ने उन्हें कहा, आप गाते तो है लेकिन हर किसी जगह इन पदों को नही गाना चाहिये,
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आप इन अद्भुत अष्टापदियो के रहस्य को नही जानते।
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क्योकि जहाँ कहीं ये गाये जाते है भगवान श्रीकृष्ण वहाँ स्वयं उपस्थित रहते है।
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इसलिए आप एक काम करिये। जब कभी भी आप इन्हें गाये तो श्याम सुन्दर के लिए एक अलग आसान बिछा दिया करे।
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मुग़ल ने कहा – वह तो बहुत मुश्किल है, बात ये है की हम लोग दूसरे के नौकर है, और अक्सर ऐसा होता है की दरबार से वक्त वेवक्त बुलावा आ जाता है, और हमको जाना पड़ता है।
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ब्राह्मण – तो ऐसा करिये जब आपका सरकारी काम ख़त्म हो जाया करे तब आप इन्हें एकांत में गाया करिये।
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मुग़ल – यह भी नही हो सकता आदत जो पड़ गयी है ! और रही घर बैठकर गाने की बात सो कभी तो ऐसा होता है की दो दो – तीन तीन दिन और रात भी हमे घोड़े की पीठ पर बैठकर गुजारनी पड़ती है।
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ब्राह्मण – अच्छा तो फिर ऐसा किया जा सकता हैं कि घोड़े की जीन के आगे एक बिछौना श्यामसुंदर के विराजने के लिए बिछा लिया करे।
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और यह भावना मन में रख ले की आपके पद सुनने के लिए श्यामसुंदर वहाँ आकर बैठे हुए है।
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मुग़ल ने स्वीकार कर यहीं नियम बना लिया और घर पर न रहने की हालात में घोड़े पर चलता हुआ ही गीतगोविन्द के पद गुनगुनाया करता।
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एक दिन अपने अफसर के हुकुम से उसे जैसा खड़ा था उसी हालात में घोड़े पर सवार होकर कहीं जाना पड़ा,
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वह घोड़े की जीन के आगे बिछाने के लिए बिछौना भी साथ नही ले जा सका।
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रास्ते में चलते चलते वह आदत के अनुसार पदों का गायन करने लगा।
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गायन करते करते अचानक उसे लगा की घोड़े के पीछे पीछे घुंघरुओं ( नूपुर ) की झनकार आ रही है।
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पहले तो वह समझा की वहम हुआ है, लेकिन जब उस झंकार में लय का आभास हुआ तो घोडा रोक लिया और उतर कर देखने लगा।
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तत्क्षण श्यामसुंदर ने प्रकट होकर पूछा – ‘सरदार’ ! आप घोड़े से क्यों उतर पड़े ? और आपने इतना सुन्दर गायन बीच में ही क्यों बंद कर दिया ?
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मुग़ल तो हक्का -बक्का होकर सामने खड़ा देखता ही रह गया।
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भगवान की रूपमाधुरी को देखकर वह इतना विहल हो गया की मुँह से आवाज ही नही निकलती थी।
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आखिर बोला – आप संसार के मालिक होकर भी मुझ मुग़ल के घोड़े के पीछे पीछे क्यों भाग रहे थे ?
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भगवान् ने मुस्कुराते हुए कहा – भाग नही रहा। मैं तो आपके पीछे पीछे नाचता हुआ आ रहा हूं।
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क्या तुम जानते नही हो की जिन पदों को तुम गा रहे थे वो कोई साधारण काव्य नही है।
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तुम आज मेरे लिए घोड़े पे गद्दी बिछाना भूल गए तो क्या मैं भी नाचना भूल जाऊ क्या ?
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मुग़ल को अब मालूम हुआ की मुझसे अब कितना भारी अपराध बन गया है। यह सब इसलिए हुआ की वह पराधीन था।
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दूसरे दिन प्रातः ही उसने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और वैराग्य लेकर श्यामसुंदर के भजन में लग गया।
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सही है एक बार उन महाप्रभु की रूप माधुरी को देख लेने के बाद संसार में ओर क्या शेष रह जाता है।
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यहीं मुग़ल भक्त बाद में प्रभु कृपा से ‘ मीर माधव ‘ नाम से विख्यात हुए।

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सुंदर कांड की रोचक प्रश्नोत्तरी – Sundar Kand Questionnaire

1 :- सुंदरकाण्ड का नाम सुंदरकाण्ड क्यों रखा गया?

हनुमानजी, सीताजी की खोज में लंका गए थे और लंका त्रिकुटांचल पर्वत पर बसी हुई थी। त्रिकुटांचल पर्वत यानी यहां 3 पर्वत थे।
पहला सुबैल पर्वत, जहां के मैदान में युद्ध हुआ था।
दुसरा नील पर्वत, जहां राक्षसों के महल बसे हुए थे।
तीसरे पर्वत का नाम है सुंदर पर्वत, जहां अशोक वाटिका निर्मित थी। इसी वाटिका में हनुमानजी और सीताजी की भेंट हुई थी।
इस काण्ड की सबसे प्रमुख घटना यहीं हुई थी, इसलिए इसका नाम सुंदरकाण्ड रखा गया।

2 :- शुभ अवसरों पर सुंदरकाण्ड का पाठ क्यों?

शुभ अवसरों पर गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का पाठ किया जाता है। शुभ कार्यों की शुरूआत से पहले सुंदरकाण्ड का पाठ करने का विशेष महत्व माना गया है।
जबकि किसी व्यक्ति के जीवन में ज्यादा परेशानियाँ हों, कोई काम नहीं बन पा रहा हो, आत्मविश्वास की कमी हो या कोई और समस्या हो, सुंदरकाण्ड के पाठ से शुभ फल प्राप्त होने लग जाते हैं, कई ज्योतिषी या संत भी विपरित परिस्थितियों में सुंदरकाण्ड करने की सलाह देते हैं।

3 :- सुंदरकाण्ड का पाठ विषेश रूप से क्यों किया जाता है?

माना जाता हैं कि सुंदरकाण्ड के पाठ से हनुमानजी प्रशन्न होते हैं।
सुंदरकाण्ड के पाठ में बजरंगबली की कृपा बहुत ही जल्द प्राप्त हो जाती है।
जो लोग नियमित रूप से सुंदरकाण्ड का पाठ करते हैं, उनके सभी दुखः दुर हो जाते हैं, इस काण्ड में हनुमानजी ने अपनी बुद्धि और बल से सीता माता की खोज की है।
इसी वजह से सुंदरकाण्ड को हनुमानजी की सफलता के लिए याद किया जाता है।

4 :- सुंदरकाण्ड से क्यों मिलता है मनोवैज्ञानिक लाभ?

वास्तव में श्रीरामचरितमानस के सुंदरकाण्ड की कथा सबसे अलग है, संपूर्ण श्रीरामचरितमानस भगवान श्रीराम के गुणों और उनके पुरूषार्थ को दर्शाती है, सुंदरकाण्ड एक मात्र ऐसा अध्याय है जो श्रीराम के भक्त हनुमान की विजय का काण्ड है।

मनोवैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो यह आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति बढ़ाने वाला काण्ड है, सुंदरकाण्ड के पाठ से व्यक्ति को मानसिक शक्ति प्राप्त होती है, किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिए आत्मविश्वास मिलता है।

5 :- सुंदरकाण्ड से क्यों मिलता है धार्मिक लाभ?

सुंदरकाण्ड के वर्णन से मिलता है धार्मिक लाभ, हनुमानजी की पूजा सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली मानी गई है। बजरंगबली बहुत जल्दी प्रशन्न होने वाले देवता हैं, शास्त्रों में इनकी कृपा पाने के कई उपाय बताए गए हैं, इन्हीं उपायों में से एक उपाय सुंदरकाण्ड का पाठ करना है, सुंदरकाण्ड के पाठ से हनुमानजी के साथ ही श्रीराम की भी विशेष कृपा प्राप्त होती है।

किसी भी प्रकार की परेशानी हो सुंदरकाण्ड के पाठ से दूर हो जाती है, यह एक श्रेष्ठ और सरल उपाय है, इसी वजह से काफी लोग सुंदरकाण्ड का पाठ नियमित रूप से करते हैं,

हनुमानजी जो कि वानर थे, वे समुद्र को लांघकर लंका पहुंच गए वहां सीता माता की खोज की, लंका को जलाया सीता माता का संदेश लेकर श्रीराम के पास लौट आए, यह एक भक्त की जीत का काण्ड है, जो अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है, सुंदरकाण्ड में जीवन की सफलता के महत्वपूर्ण सूत्र भी दिए गए हैं, इसलिए पुरी रामायण में सुंदरकाण्ड को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि यह व्यक्ति में आत्मविश्वास बढ़ाता है, इसी वजह से सुंदरकाण्ड का पाठ विशेष रूप से किया जाता है।

।। जय श्री राम ।।

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विट्ठल रुक्मिणी के भक्त – Devotees of Shri Vitthal

छत्रपति शिवाजी महाराज के समय की बात है।
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मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में उज्जैनी के पास एक छोटे ग्राम में गणेशनाथ का जन्म हुआ।
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यह कुल भगवान् का भक्त था। माता पिता भगवान की पूजा करते और भगवन्नाम का कीर्तन करते थे। बचपन से ही गणेशनाथ में भक्ति के संस्कार पड़े।
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माता उन्हें प्रोत्साहित करती और वे तुतलाते हुए भगवान का नाम ले लेकर नाचते।
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पिता ने भी उन्हें संसार के विषयो में लगने की शिक्षा देने के बदले भगवान का माहात्म्य ही सुनाया था।
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धन्य हैं वे माता पिता, जो अपने बालक को विषतुल्य विषय भोगो में नहीं लगाते, बल्कि उसे भगवान के पावन चरणों में लगने की प्रेरणा देते हैं।
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पिता – माता से गणेशनाथ ने भगवन्नाम कीर्तन का प्रेम और वैराग्य का संस्कार पैतृक धन के रूपमें पाया।
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माता पिता गणेशनाथ की युवावस्था प्रारम्भ होने के पूर्व ही परलोक वासी हो गये थे। घर मे अकेले गणेशनाथ रह गये।
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किंतु उन्हें अब चिन्ता क्या ? हरिनाम का रस उन्हें मिल चुका था। कामिनी काञ्चन का माया जाल उनके चित्त को कभी आकर्षित नहीं कर सका।
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वे तो अब सत्संग और अखण्ड भजन के लिये उत्सुक हो उठे। उन्होंने एक लंगोटी लगा ली। जाड़ा हो, गरमी हो या है वर्षा हो, अब उनको दूसरे किसी वस्त्र से काम नहीं था।
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वे भगवान् का नाम कीर्तन करते, पद गाते आनन्दमय हो नृत्य करने लगते थे। धीरे धीरे वैराग्य बढता ही गया।
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दिनभर जंगल में जाकर एकान्त में उच्चस्वर से नाम कीर्तन करते और रात्रि को घर लौट आते। रात को गाँव के लोगों को भगवान् की यथा सुनाते।
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कुछ समय बीतनेपर ये गांव छोड़कर पण्ढरपुर चले आये और वहीं श्री कृष्ण का भजन करने लगे।
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एक बार छत्रपति शिवाजी महाराज पण्ढरपुर पधारे। पण्ढरपुर में उन दिनों अपने वैराग्य तथा संकीर्तन प्रेम के कारण साधु गणेशनाथ प्रसिद्ध को चुके थे।
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शिवाजी महाराज इनके दर्शन करने गये। उस समय ये कीर्तन करते हुए नृत्य कर रहे थे। बहुत रात बीत गयी, पर इन्हें तो शरीर का पता ही नहीं था।
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छत्रपति चुपचाप देखते रहे। जब कीर्तन समाप्त हुआ, तब शिवाजी ने इनके चरणोंमें मुकुट रखकर अपने खीमें में रात्रि विश्राम करने की इनसे प्रार्थना को।
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भक्त बड़े संकोच में पड़ गये। अनेक प्रकार से उन्होंने अस्वीकार करना चाहा, पर शिवाजी महाराज आग्रह करते ही गये।
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अन्त में उनकी प्रार्थना स्वीकार करके गणेशनाथ बहुत से कंकड़ चुनकर अपने वस्त्र में बाँधने लगे।
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छत्रपति ने आश्चर्य से पूछा -इनका क्या होगा ?
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आपने कहा- ये भगवान् का स्मरण दिलायेंगे।
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राज़शिबिर में गणेशनाथ जी के सत्कार के लिये सब प्रकार की उत्तम व्यवस्था की गयी। सुन्दर पकवान सोनेके थाल में सजाये गये,
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सुगन्धित जलसे उनके चरण धोये स्वयं छत्रपति ने, इत्र आदि उपस्थित किया गया और स्वर्ण के पलंग पर कोमल गद्दे के ऊपर फूल बिछाये गये उनको सुलानेके लिये।
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गणेशनाथ ने यह सब देखा तो सन्न रह गये। जैसे कोई शेर गायके छोटे बछड़े को उठाकर अपनी मांदमें ले जाये और वह बेचारा बछड़ा भयके मारे भागने का रास्ता न पा मके, यही दशा गणेशनाथ की हो गयी।
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उन्हें भोग के ये सारे पदार्थ जलती हुई अग्नि के समान जान पड़ते थे । किसी प्रकार थोड़ा सा कुछ खाकर वे विश्राम करने गये।
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उस फूल बिछी शय्यापर अपने साथ लायी बडी गठरी के कंकडों को बिछाकर उनपर बैठ गये।
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वे रोते रोते कहते जाते थे- पाण्डुरंग। मेरे स्वामी। तुमने मुझे कहां लाकर डाल दिया ? अवश्य मेरे कपटी हदय मे इन भोगो के प्रति कहीं कुछ आसक्ति थी, तभी तो तुमने मुझे यहाँ भेजा है।
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विट्ठल ! मुझे ये पदार्थ नरक की यन्त्रणा जैसे जान पड़ते हैं। मुझे तो तुम्हारा ही स्मरण चाहिये।
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किसी प्रकार रात बीती। सबेरे शिवाजी महाराज ने आकर प्रणाम करके पूछा – महाराज ! रात्रि सुखसे तो व्यतीत हुई ?
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गणेशनाथ जी ने उत्तर दिया- जो क्षण विट्ठल का नाम लेने में बीते, वही सफल है। आज की रात हरिनाम लेने-में व्यतीत हुई अत : वह सफल हुई।
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शिवाजी ने जब संत के भाव सुने, तब उनके नेत्रोंसे आसू बहने लगे। साधुको आग्रह करके अपने यहाँ ले आने का उन्हें पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने चरणों में गिरकर क्षमा मांगी।
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साधक के लिये एक सबसे बडा विघ्न है लोक प्रख्याति। प्रतिष्ठा के कारण जितना शीघ्र साधक मोह मे पड़ता है, उतनी शीघ्रता से पतन दूसरे किसी विघ्न से नहीं होता।
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अतएव साधकक्रो सदा सावधान होकर शूकरो विष्ठाके समान प्रतिष्ठा से दूर रहना चाहिये।
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गणेशनाथ जी ने देखा कि पंढरपुर में अब लोग मुझें जान गये हैं, अब मनुष्यों की भीड़ मेरे पास एकत्र होने लगी है, तब वे घने जंगल में चले गये।
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परंतु फूल खिलेगा तो सुगन्धि फैलेगी ही और उससे आकर्षित होकर भौरे भी वहां एकत्र होंगे ही।
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गणेशनाथ जी में भगवान का जो दिव्य अनुराग प्रकट हुआ था, उससे आकर्षित होकर भगवान् के प्रेमी भक्त वनमें भी उनके पास एकत्र होने लगे।
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गणेशनाथ जी का भगवत् प्रेम ऐसा था कि वे जिसे भी छू देते थे, वही उन्मत्त की भाँति नाचने लगता था। वही भगवन्नाम का कीर्तन करने लगता था।
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श्री चैंतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तोंसे एक बार कहा था- सच्चा भगवद भक्त वह है, जिसके पास जाते ही दूसरे इच्छा न होनेपर भी विवश् की भाँति अपने आप भगवान् का नाम लेने लगे। गणेशनाथ जी इसी प्रकार के भगवान् के भक्त थे।
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श्री गणेशनाथ जी के प्रेम की महिमा अपार है। वे जब भगवान के प्रेम में उन्मत्त होकर पांडुरंग विट्ठल पांडुरंग विट्ठल ! विट्ठल रुक्मिणी ! कहकर नृत्य करने लगते थे, तब वहां के सब मनुष्य उनके साथ कीर्तन करने को जैसे विवश हो जाते थे।
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ऐसे भगवद्भक्त तो नित्य भगवान् को प्राप्त हैं। वे भगवन्मय हैं। उनके स्मरण से, उनके चरित का हदयमें चिन्तन करने से मनुष्य के पाप ताप नष्ट हो जाते हैं और मानुष हृदय में भगवान् का अनुराग जागृत हो जाता है।

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ईश्वर पर विश्वास – Trust God

हर समय माला लेकर बैठे रहते हो । कुछ पैसे धेले का इंतजाम करो लड़की के लिए लड़का नहीं देखना । निर्मला ने रोज की तरह सुबह से ही बड़बड़ाना शुरु कर दिया।

ईश्वर पर विश्वास रखो , समय पर सब हो जाएगा । चौबे जी ने अपना गमछा संभालते हुए कहा ।

ईश्वर तो जैसे घर बैठे ही लड़का भेज देंगे। उनके पास तो कोई काम है नहीं सिर्फ आपका ध्यान रखने के अलावा ।

अरे क्यों पूरा दिन चकचक करती रहती हो ? चौबे जी कभी गुस्सा नहीं होते । वो तो बस पूरा दिन बस लड्डू गोपाल के बारे में ही सोचते हैं ।

जयपुर वाली मौसी बता रही थी , उनके रिश्तेदारी में एक लड़का है । अब देखकर तो जब आओगे , जब जेब में1000 , 2000 रुपए होंगे । जो दो चार रुपए बचते हैं , उन्हें अपने दोस्तों को उधार दे देते हो । आज तक लौटाए हैं किसी ने।

आज तक किसी चीज की कोई कमी हुई है । आगे भी नहीं होगी ईश्वर की कृपा से । तुम तो मुझे भजन भी नहीं करने देती ।

भजन ही करना था तो शादी क्यों की ? अब वो बैठे-बिठाए तुम्हारी लड़की की शादी भी कर जाएंगे।

हां रहने दो बस । लो थैला पकड़ो और जाओ सब्जी ले आओ ।और हां , जिस लडके के बारे में मैंने बात की है ।उसके बारे में जरा सोचना परसों जाना है तुम्हें ।अब थोड़े बहुत पैसों के लिए एफडी तो तुडवाओगे नहीं । जो यार दोस्तों को उधार दे रखे हैं उनसे जरा मांग लो।

थैला लेकर निकल तो गए लेकिन विचार यही है मन में ।पैसों का इंतजाम कैसे होगा ? सब्जी लेने से पहले जरा अपने दोस्त से अपने पैसों की बात कर ली जाए । जिस शोरूम में काम करता है , वो भी पास ही है ।

राकेश ने अपने मित्र को देखा तो गले लगा लिया । चौबे कैसे आना हुआ ?

कुछ ना भैया कुछ समस्या आन पड़ी है । पैसो की सख्त जरुरत है ? अपने ही पैसे चौबे जी ऐसे मांग रहे हैं , जैसे उधार मांग रहे हो ।
देखता हूं साहब से मांगता हूं ।6 दिन पहले ही विदेश से आए हैं । ऐसे 6 शोरूम है उनके पास । बात करके तुम्हें बता दूंगा ।

और बताओ ललिया ठीक है ? कैसा चल रहा है उसका योगा क्लास ?

बढ़िया चल रहा है सुबह 5:00 बजे जाती है ,पूरा 5000 कमाती है । चौबे जी ने बड़े गर्व से कहा

सर्वगुण संपन्न है हमारी लाली। कैबिन से बाहर निकले ही थे , एक जगह नज़र टिकी गई। इतनी सुंदर मूर्ति लड्डू गोपाल की । चौबे जी अपलक देख रहे थे जैसे अभी बात करने लगेगी। तभी राकेश ने ध्यान भंग करते हुए कहा ,” बडे साहब ने आर्डर पर बनवाई है । बाहर से बनकर आई है । ऐसी 3 बनवाई हैं ।”

रास्ते भर मूर्ति की छवि उनकी नजरों से ओझल नहीं हो रही थी । काश वो मूर्ति उनके पास होती ।भूल नहीं पा रहे हैं अगर उनके पास होती कैसे निहलाते , क्या क्या खिलाते ,घर कब आया पता ही नहीं चला ।लेकिन घर के सामने इतनी भीड़ क्यों है ? गाड़ी तो काफी महंगी लग रही है ? अपने घर के दरवाजे में घुसने ही वाले थे कि थैला हाथ से छीनकर निर्मला ने मुस्कुराकर उनका स्वागत किया ।

कौन आया है ? अंदर सूट बूट में एक आदमी बैठा है ।चौबे जी को देखते ही वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया ।

राधे राधे चौबे जी ने कहा । बैठिए । क्षमा कीजिए मैंने आपको पहचाना नहीं ।

अरे आप कैसे पहचानेंगे ? हम पहली बार मिल रहे हैं । उसने बड़ी शालीनता के साथ जवाब दिया।
जी कहिए , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ?

दरअसल मैं आपसे कुछ मांगने आया हूं ।

सीधा-सीधा बताइए चौबे जी सोच में पडे थे जाने क्या मांग ले ? इतने बड़े आदमी को मुझसे क्या चाहिए ?

आज से चार दिन पहले मैं मॉर्निंग वॉक के लिए गया था ।लेकिन उस दिन मेरे साथ एक दुर्घटना हुई ।मुझे हार्टअटैक आ गया । आसपास कोई नहीं था मदद के लिए ।ना मैं कुछ बोल पा रहा था । तभी एक लड़की स्कूटी पर आती दिखी । मुझे सडक पर पड़े हुए देखकर उसने अपनी स्कूटी रोकी । अकेली वो मुझे उठा नहीं सकती थी । फिर अपनी स्कूटी से दूर की दुकान पर जाकर एक आदमी को बुलाकर लाई । उसकी मदद से उसने मुझे अपनी स्कूटी पर बिठाया और मुझे हॉस्पिटल लेकर गई । अगर थोड़ी सी भी देर हो जाती शायद मेरा अन्त निश्चित था ।और वो लड़की कोई और नहीं , आपकी बेटी थी ।

उस आदमी ने हाथ जोड़ते हुए कहा , अगर आप लायक समझे , तो मैं अपने बेटे के लिए आपकी बेटी का हाथ मांगता हूं ।जो अनजान की मदद कर सकती है । वो अपने परिवार का कितना ध्यान रखेगी ।”

चौबे जी एक दम जड़ हो गए । विश्वास नहीं कर पा रहे थे क्या यह सच में ये हो रहा है कि मुझे किसी के दरवाजे पर ना जाना पड़े । इस स्थिति से बाहर नहीं निकले थे कि तभी उन्होंने अपने पास रखे हुए बैग में से एक बड़ा सा बक्सा निकाला । इसमें वही मूर्ति थी , जिसे अभी शोरूम में देखकर आए थे । जो आंखो के सामने से ओझल नहीं। हो रही थी । जिसे देखते ही मन में ये ख्याल आया था कि काश मेरे मंदिर में होती । ऊपरवाले ने प्रमाणित कर दिया की मुझे उसका जितना ख्याल है उसे मेरा मुझसे ज्यादा है ।

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