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हनुमान चालीसा रचना की रोचक कहानी

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भगवान को अगर किसी युग में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है तो वह युग है कलियुग। इस कथन को सत्य करता एक दोहा रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है:

कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा।

जिसका अर्थ है कि कलयुग में मोक्ष प्राप्त करने का एक ही लक्ष्य है वो है भगवान का नाम लेना। तुलसीदास ने अपने पूरे जीवन में कोई भी ऐसी बात नहीं लिखी जो गलत हो। उन्होंने अध्यात्म जगत को बहुत सुन्दर रचनाएँ दी हैं।

ऐसा माना जाता है कि कलयुग में हनुमान जी सबसे जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले भगवान हैं। उन्होंने हनुमान जी की स्तुति में कई रचनाएँ रची जिनमें हनुमान बाहुक, हनुमानाष्टक और हनुमान चालीसा प्रमुख हैं।

हनुमान चालीसा की रचना के पीछे एक बहुत ही रोचक कहानी है जिसकी जानकारी शायद ही किसी को हो। आइये जानते हैं हनुमान चालीसा की रचना की कहानी:

ये बात उस समय की है जब भारत पर मुग़ल सम्राट अकबर का राज्य था। सुबह का समय था, एक महिला ने पूजा से लौटते हुए तुलसीदास जी के पैर छुए। तुलसीदास जी ने नियमानुसार उसे सौभाग्यशाली होने का आशीर्वाद दिया।

आशीर्वाद मिलते ही वो महिला फूट-फूट कर रोने लगी और रोते हुए उसने बताया कि अभी-अभी उसके पति की मृत्यु हो गई है। इस बात का पता चलने पर भी तुलसीदास जी जरा भी विचलित न हुए और वे अपने आशीर्वाद को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थे।

क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान भली भाँति था कि भगवान राम बिगड़ी बात संभाल लेंगे और उनका आशीर्वाद खाली नहीं जाएगा। उन्होंने उस औरत सहित सभी को राम नाम का जाप करने को कहा। वहां उपस्थित सभी लोगों ने ऐसा ही किया और वह मरा हुआ व्यक्ति राम नाम के जाप आरंभ होते ही जीवित हो उठा।

यह बात पूरे राज्य में जंगल की आग की तरह फैल गई। जब यह बात बादशाह अकबर के कानों तक पहुंची तो उसने अपने महल में तुलसीदास को बुलाया और भरी सभा में उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा कि कोई चमत्कार दिखाएँ।

ये सब सुन कर तुलसीदास जी ने अकबर से बिना डरे उसे बताया की वो कोई चमत्कारी बाबा नहीं हैं, सिर्फ श्री राम जी के भक्त हैं। अकबर इतना सुनते ही क्रोध में आ गया और उसने उसी समय सिपाहियों से कह कर तुलसीदास जी को कारागार में डलवा दिया।

तुलसीदास जी ने तनिक भी प्रतिक्रिया नहीं दी और राम का नाम जपते हुए कारागार में चले गए। उन्होंने कारागार में भी अपनी आस्था बनाए रखी और वहां रह कर ही हनुमान चालीसा की रचना की और लगातार 40 दिन तक उसका निरंतर पाठ किया।

चालीसवें दिन एक चमत्कार हुआ। हजारों बंदरों ने एक साथ अकबर के राज्य पर हमला बोल दिया। अचानक हुए इस हमले से सब अचंभित हो गए।

अकबर एक सूझवान बादशाह था इसलिए इसका कारण समझते देर न लगी। उसे भक्ति की महिमा समझ में आ गई। उसने उसी क्षण तुलसीदास जी से क्षमा मांग कर कारागार से मुक्त किया और आदर सहित उन्हें विदा किया। इतना ही नहीं, अकबर ने उस दिन के बाद तुलसीदास जी से जीवनभर मित्रता निभाई।

इस तरह तुलसीदास जी ने एक व्यक्ति को कठिनाई की घड़ी से निकलने के लिए हनुमान चालीसा के रूप में एक ऐसा रास्ता दिया है। जिस पर चल कर हम किसी भी मंजिल को प्राप्त कर सकते हैं।

इस तरह हमें भी भगवान में अपनी आस्था को बरक़रार रखना चाहिए। ये दुनिया एक उम्मीद पर टिकी है। अगर विश्वास ही न हो तो हम दुनिया का कोई भी काम नहीं कर सकते।


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संत कबीर का उपदेश

संत कबीर जी पेड़ों की झुरमट तले बैठे थे | उनके पास की एक शाखा पर एक पिंजरा टंगा था, जिसमें एक मैना फुदक रही थी | बड़ी अनूठी थी, वह मैना | खूब गिटरपिटर मनुष्यों की सी बोली बोल रही थी | कबीर जी भी उससे बातें कर रहे थे |

इतने में, नगर सेठ अपनी पत्नी के साथ कबीर जी के क़दमों में हाज़िर हुआ | मन की भावना रखी – ‘महाराज, मेरे सिर के बाल पक चले हैं | घर-गृहस्थी के दायित्व भी पूरे हो गए हैं | सोच रहा हूँ, हमारी सनातन परम्परा के चार आश्रमों में से तीसरी पौड़ी ‘वानप्रस्थ’ की और बढ़ चलूँ | एकांत में सुमिरन-भजन करूँ |’

कबीर, बिना किसी लाग-लपेट के, एकदम खरा बोले- ‘सेठ जी, यूँ वन में इत-उत डोलने से हरि नहीं मिलता!’

सेठ – फिर कैसे मिलता है, हरि ? आप बता दें महाराज |

कबीर फिर मैना से बतियाने लगे – ‘मैना रानी, बोल – राम…राम… !’ मैना ने दोहराया – ‘राम…राम |’ कबीर उससे ढेरों बातें करने लगे | सेठ-सेठानी को इतना साफ बोलते देखकर खुश हो रहे थे… कि तभी कबीर उनकी और मुड़े और बोले – ‘जानते हो सेठ जी, मैना को मनुष्यी बोली कैसे सिखाई जाती है? आप उसके सामने खड़े होकर उसे कुछ बोलना सिखाओगे, तो वह कभी नहीं सीखेगी | इसलिए मैंने एक दर्पण लिया और उसकी आड़ में छिपकर बैठ गया | दर्पण के सामने पिंजरा था | मैं दर्पण के पीछे से बोला – ‘राम! राम!’ मैना ने दर्पण में अपनी छवि देखी | उसे लगा उसका कोई भाई-बंधु कह रहा है- ‘राम! राम!’ इसलिए वह भी झट सीख और समझ गई | इसी तरह दर्पण की आड़ में मैंने उसे पूरी मनुष्यी बोली सिखाई | और अब देखो, यह कितना फटाफट बोलती है…!’

इतना कहकर कबीर ताली बजाकर हँस दिए | फिर इसी मौज में, सेठ-सेठानी से सहजता से बोल गए – ‘ऐसे ही सेठ जी भगवान कैसे मिलता है, यह तो खुद भगवान ही बता सकता है | लेकिन अगर वह यूँ ही सीधा बताएगा, तो तुम्हारी बुद्धि को समझ नहीं पड़ेगी | इसलिए वह मानव चोले की आड़ में आता है और ब्रह्मज्ञान का सबक सिखाता है – ब्रह्म बोले काया के ओले | काया बिन ब्रह्म कैसे बोले || वह मानव बनकर आता है, मानव को अपनी बात समझाने | उस महामानव को, मनुष्य देह में अवतरित ब्रह्म को ही हम ‘सतगुरू’ सच्चा गुरु या साधू’ कहते हैं |

निराकार की आरसी, साधों ही की देहि |

लखा जो चाहै अलख को, इनही में लखि लेहि ||

अर्थात सदगुरू की साकार देह निराकार ब्रह्म का दर्पण है | वो अलख (न दिखाई देने वाला) प्रभु सच्चे गुरू की देह में प्रत्यक्ष हो आता है |

इसलिए सेठ जी, अगर भगवान को पाना है, तो ‘वानप्रस्थ’ नहीं, ‘गुरूप्रस्थ’ बनो | सदगुरू के देस चलो –

चलु कबीर वा देस में,

जहँ बैदा सतगुरू होय

सेठ – सोलह आने सच बात, महाराज | मगर एक दुविधा है | दास जानना चाहता है कि मनुष्य चोले में तो कई पाखंडी स्वयं को ‘गुरू’ कहलाते घूमते हैं | फिर हम ज्ञानीजन कैसे पहचाने कि इस काया में साकार ब्रह्म है या कोई ढोंगी है ?

कबीर ने प्रशंसा भरी दृष्टि से सेठ जी को देखा – ‘उत्तम प्रश्न किया है आपने |

जब तक देखूं न अपनी नैनी, तब तक पतीजूं न गुरू की वैणी

– सोच-समझ कर, देखभाल कर ही किसी को सदगुरु दर्जा देना चाहिए |

भई, मैं अपनी राय कहूँ, तो –

साधो सो सतगुरू मोहिं भावै | सत नाम नाम का भरि भरि प्याला, आप पिवै मोहिं प्यावै ||

मुझे तो ऐसा सदगुरु भाता है, जो प्रभु के अव्यक्त आदिनाम का अमृत मुझे पिला दे |

परदा दूरि करै आँखिन का, निज दरसन दिखलावै | जा के दरसन साहिब दरसै, अनहद सबद सुनावै |

जो प्रभु की सिर्फ मीठी-मीठी बातों में न बहलाए | बल्कि मेरी आँख पर से अज्ञानता का पर्दा हटा दे, मेरा शिव – नेत्र (दिव्य दृष्टि) खोल दे और साहिब का साक्षात् दीदार करा दे, और मेरे अंतर्जगत में अनहद बाणी गूँज उठे… वही पूरा तत्वदर्शी गुरू है | वही सत्पुरश है |’

उधर सेठ-सेठानी और इधर हंस मनमुखा गदगद हो चुके थे | दोनों हंसों को ‘गुरू क्यों? और गुरू कैसा?’ – इन दो सीखों के बेशकीमती मोती मिल चुके थे | वे उन्हें अपनी चोंच से चुग कर, ‘संतों के देस’ से वापिस लौट रहे थे |

आपके अंदर के हंस

आपके अंदर ही ये दोनों हंस रहते हैं – आपका मन (मनमुखा) और आपकी आत्मा (आत्माराम) | आपका हंस आत्माराम परमात्मा के दर्शन के लिए व्याकुल है | पर हंस मनमुखा उसका साथ देने को तैयार नहीं होता | माने वह किसी सदगुरु, तत्वदर्शी सत्पुरश से ज्ञान-दीक्षा लेने के लिए राजी नहीं होता | पर अब तो आपके दोनों हंसों ने ‘संतों के देस’ की सैर कर ली है और सत्संग के मोती भी पा लिए हैं | तो क्या अब आपका ‘मनमुखा’ माना ?

यदि अब भी नहीं माना, तो उसे बारम्बार संस्थान के सत्संग पंडालों में लाना न भूलें, ताकि वह संतों की और वाणियाँ सुन पाए और यदि वह मान गया, तो फिर विलम्ब न कीजिए | ‘ब्रह्मज्ञान’ की दीक्षा पाकर ‘सुख’ से आनंद की ओर बढ़ जाइए |

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सच्चा बादशाह

एक बड़े देश का राजा था। उसके देश में एक गरीब आदमी रहता था, जो हमेशा राजा से हाथ मिलाने की इच्छा रखता था। जब भी वह किसी बड़े आदमी को राजा से हाथ मिलाते देखता, उसके मन में भी यह तमन्ना जाग उठती। धीरे-धीरे यह तमन्ना बढ़ती गई और उसने ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह राजा से हाथ मिलाकर रहेगा।

एक दिन वह आदमी किसी संत के पास गया और अपनी इच्छा बताई। संत ने कहा कि इसके लिए तुझे सब्र और मेहनत करनी पड़ेगी, क्रोध और लालच का त्याग करना पड़ेगा और समय भी लगेगा। आदमी ने यह सब करने के लिए तैयार हो गया। संत ने उसे सलाह दी कि राजा एक महल तैयार करवा रहा है, वह वहां जाकर बिना किसी लालच के भेदभाव के ईमानदारी से काम करे।

वह आदमी महल में काम करने लगा। जब भी शाम को राजा का मंत्री मजदूरी देता, वह कह देता कि यह अपना ही काम है, अपने काम की मजदूरी कैसी। वह दिन-रात मेहनत करता और खाली नहीं बैठता। समय बीतता गया और महल तैयार हो गया। उसने महल के चारों ओर सुंदर-सुंदर फूल और पेड़ लगाकर उसे इतना खूबसूरत बना दिया कि जो भी देखता, देखता ही रह जाता।

एक दिन राजा महल देखने आया और उसे देखकर बहुत खुश हुआ। उसने मंत्री से पूछा कि इतनी सजावट किसने की है। मंत्री ने बताया कि यह कोई आपका ही रिश्तेदार है, जिसने 12 साल से मजदूरी नहीं ली और अन्य मजदूरों से अधिक काम किया है। जब भी मजदूरी देने की बात होती, वह कहता कि अपना ही काम है, अपने काम की मजदूरी कैसी।

राजा सोच में पड़ गया कि ऐसा कौन सा रिश्तेदार है। उसने कहा कि उसे बुलाओ। आदमी को बुलाया गया और राजा ने उसका खड़े होकर स्वागत किया और हाथ मिलाया। फिर राजा ने उससे उसका परिचय लिया। परिचय के बाद राजा को हैरानी हुई कि यह रिश्तेदार भी नहीं है और मजदूरी भी नहीं ली है, और सेवाभाव से काम भी किया है। राजा बहुत खुश हुआ और कहा कि मांगो क्या मांगते हो। आदमी ने कहा कि जी, कुछ नहीं, जो चाहता था, वह मिल गया। उसने सारी बात बताई।

राजा ने कहा कि अब तेरा मुझसे हाथ मिल गया है, अब तू बेपरवाह है, सब सुख तेरे अधीन है, अब तू भी बादशाह है। जो कुछ मेरा है, वह तेरा है।

इस कहानी का मतलब है कि हमें उस मालिक बादशाह की भक्ति जी जान से, दिल लगाकर पूरी ईमानदारी से करनी चाहिए। जब उससे अपना हाथ मिल जाएगा, तो कोई कमी नहीं रहेगी। अगर एक दुनिया का राजा खुश होकर इतना कुछ दे सकता है, तो खुद परमात्मा से हाथ मिलाने पर क्या कमी होगी।

अपने सतगुरु को खुश करो, चाहे जैसे भी करो। यही सच्ची भक्ति है। उससे हाथ मिलाकर उसके जैसे हो जाओ, वह बादशाह है और तुम्हें भी बादशाह बना देगा।

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Story Spiritual

दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम

एक समय की बात है श्री गुरू नानक देव जी महाराज और उनके दो शिष्य, बाला और मरदाना, किसी गाँव में जा रहे थे। चलते-चलते रास्ते में एक मकई का खेत आया। बाला स्वभाविक रूप से बहुत कम बोलता था, मगर मरदाना बातों की तह में जाना पसंद करता था। मकई का खेत देखकर मरदाने ने गुरू नानक जी महाराज से सवाल किया, “बाबा जी, इस मकई के खेत में जितने दाने हैं, क्या वे सब पहले से निर्धारित कर दिए गए हैं कि कौन उनका हकदार है और ये किसके मुँह में जाएँगे?”

इस पर गुरू नानक जी महाराज ने कहा, “बिल्कुल मरदाना जी, इस संसार में कहीं भी कोई भी खाने योग्य वनस्पति है, उस पर मोहर पहले से ही लग गई है और जिसके नाम की मोहर होगी वही जीव उसका ग्रास करेगा।”

गुरू जी की इस बात ने मरदाने के मन में कई सवाल खड़े कर दिए। मरदाने ने मकई के खेत से एक मक्का तोड़ लिया और उसका एक दाना निकाल कर हथेली पर रख लिया। फिर वह गुरू नानक जी महाराज से पूछने लगा, “बाबा जी, कृपा करके आप मुझे बताएँ कि इस दाने पर किसका नाम लिखा है।”

गुरू नानक जी महाराज ने जवाब दिया, “इस दाने पर एक मुर्गी का नाम लिखा है।” मरदाने ने गुरू जी के सामने बड़ी चालाकी दिखाते हुए मकई का वह दाना अपने मुँह में फेंक लिया और कहने लगा, “कुदरत का यह नियम तो बड़ी आसानी से टूट गया।”

जैसे ही मरदाने ने वह दाना निगला, वह दाना उसकी श्वास नली में फंस गया। अब मरदाने की हालत तीर लगे कबूतर जैसी हो गई। मरदाने ने गुरू नानक देव जी को कहा, “बाबा जी, कुछ कीजिए नहीं तो मैं मर जाऊँगा।”

गुरू नानक देव जी महाराज ने कहा, “मरदाना जी, मैं क्या करूँ? कोई वैद्य या हकीम ही इसको निकाल सकता है। पास के गाँव में चलते हैं, वहाँ किसी हकीम को दिखाते हैं।” मरदाने को लेकर वे पास के एक गाँव में चले गए। वहाँ एक हकीम मिला। उस हकीम ने मरदाने की नाक में नसवार डाल दी। नसवार बहुत तेज थी। नसवार सूंघते ही मरदाने को छींके आनी शुरू हो गईं। मरदाने के छींकने से मकई का वह दाना गले से निकल कर बाहर गिर गया। जैसे ही दाना बाहर गिरा, पास ही खड़ी मुर्गी ने झट से वह दाना खा लिया।

मरदाने ने गुरू नानक देव जी से क्षमा माँगी और कहा, “बाबा जी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपकी बात पर शक किया।”

हम जीवों की हालत भी ऐसी ही है। हम इस त्रिलोक में फंसे हुए अंधे कीड़े हैं, जो दर-दर की ठोकरें खाते हैं और खुद को बहुत सियाना समझते हैं। बड़े अच्छे भाग्य से हमें यह शरीर मिला है, बड़े भाग्य से सेवा मिली, सत्संग मिला और सतगुरु ने हम जैसे कीड़ों की जिम्मेदारी लेकर नामदान की बख्शिश भी कर दी। मगर क्या हमने बाबा जी का कहना माना? क्या हमारे संशय खत्म हो गए?

बाबा जी ने हम अंधों को अपना हाथ पकड़ाया है और वह सत्पुरुष हम जीवों को परमात्मा से जरूर मिलाएगा। हमें बिना किसी तर्क-वितर्क, कैसे, क्यों, कहाँ को छोड़कर गुरू का हुक्म मानना चाहिए।

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लोभ छलता है

किसी नगर में एक बहुत ही संपन्न सेठ रहता था। उसका व्यापार दिन दूनी और रात चौगुनी उन्नति कर रहा था। इतनी समृद्धि के बावजूद सेठ का लोभ बढ़ता ही जा रहा था। वह अधिक से अधिक धन कमाने में लगा रहता और कंजूस इतना कि किसी याचक को एक कौड़ी नहीं देता था।

एक दिन उसके द्वार पर एक फक्कड़ साधु आया और उससे कुछ देने की प्रार्थना की। उस दिन सेठ को न जाने क्या हुआ कि उसने एक पैसा साधु की झोली में डाल दिया। साधु उसे भगवान का प्रसाद देकर आशीर्वचन कहता हुआ चला गया।

सेठ तब आश्चर्यचकित रह गया, जब शाम को उसे प्रसाद के दोने में सोने की एक अशर्फी प्राप्त हुई। अशर्फी मिलने से उसे एक ओर जहां अत्यंत प्रसन्नता हुई, वहीं अफसोस भी हुआ कि उसने साधु को एक पैसा ही क्यों दिया।

अगले दिन साधु फिर आया। लोभी सेठ तो उसकी प्रतीक्षा में ही बैठा था। इस बार साधु के झोली फैलाते ही सेठ ने मुट्ठीभर पैसे उसमें डाल दिए। साधु पुन: उसे प्रसाद व आशीष देकर चला गया। सेठ शाम होने की प्रतीक्षा करने लगा। रात हो गई, लेकिन अशर्फी प्राप्त नहीं हुई।

सेठ अब सिर धुनने लगा कि मेरे पैसे भी चले गए और अशर्फी भी नहीं मिली।

तभी सेठ की धर्मपरायण पत्नी ने उसे समझाया, “दुख मत मनाइए, यह सबक लीजिए कि त्याग फलता है, जबकि लोभ छलता है।” पत्नी की इस बात ने सेठ की आंखें खोल दीं।

कथा का सार यह है कि नि:स्वार्थ भाव से किया गया दान हमेशा अच्छा प्रतिफल देता है, जबकि इसके विपरीत स्थिति में किया गया दान न उपलब्धि देता है, न आत्मसंतोष।

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ताक़त

बहुत पहले आपने एक चिड़िया की कहानी सुनी होगी…

जिसका एक दाना पेड़ के कंदरे में कहीं फंस गया था…

चिड़िया ने पेड़ से बहुत अनुरोध किया उस दाने को दे देने के लिए लेकिन पेड़ उस छोटी सी चिड़िया की बात भला कहां सुनने वाला था…

हार कर चिड़िया बढ़ई के पास गई और उसने उससे अनुरोध किया कि तुम उस पेड़ को काट दो, क्योंकि वो उसका दाना नहीं दे रहा…

भला एक दाने के लिए बढ़ई पेड़ कहां काटने वाला था…

फिर चिड़िया राजा के पास गई और उसने राजा से कहा कि तुम बढ़ई को सजा दो क्योंकि बढ़ई पेड़ नहीं काट रहा और पेड़ दाना नहीं दे रहा…

राजा ने उस नन्हीं चिड़िया को डांट कर भगा दिया कि कहां एक दाने के लिए वो उस तक पहुंच गई है।
चिड़िया हार नहीं मानने वाली थी…

वो महावत के पास गई कि अगली बार राजा जब हाथी की पीठ पर बैठेगा तो तुम उसे गिरा देना, क्योंकि राजा बढ़ई को सजा नहीं देता…
बढ़ई पेड़ नहीं काटता…
पेड़ उसका दाना नहीं देता…
महावत ने भी चिड़िया को डपट कर भगा दिया…

चिड़िया फिर हाथी के पास गई और उसने अपने अनुरोध को दुहराया कि अगली बार जब महावत तुम्हारी पीठ पर बैठे तो तुम उसे गिरा देना क्योंकि वो राजा को गिराने को तैयार नहीं…

राजा बढ़ई को सजा देने को तैयार नहीं…
बढ़ई पेड़ काटने को तैयार नहीं…
पेड़ दाना देने को राजी नहीं।
हाथी बिगड़ गया…
उसने कहा, ऐ छोटी चिड़िया..
तू इतनी सी बात के लिए मुझे महावत और राजा को गिराने की बात सोच भी कैसे रही है?

चिड़िया आखिर में चींटी के पास गई और वही अनुरोध दोहराकर कहा कि तुम हाथी की सूंढ़ में घुस जाओ…
चींटी ने चिड़िया से कहा, “चल भाग यहां से…बड़ी आई हाथी की सूंढ़ में घुसने को बोलने वाली।

अब तक अनुरोध की मुद्रा में रही चिड़िया ने रौद्र रूप धारण कर लिया…उसने कहा कि “मैं चाहे पेड़, बढ़ई, राजा, महावत, और हाथी का कुछ न बिगाड़ पाऊं…पर तुझे तो अपनी चोंच में डाल कर खा ही सकती हूँ…

चींटी डर गई…भाग कर वो हाथी के पास गई…हाथी भागता हुआ महावत के पास पहुंचा…महावत राजा के पास कि हुजूर चिड़िया का काम कर दीजिए नहीं तो मैं आपको गिरा दूंगा….राजा ने फौरन बढ़ई को बुलाया…उससे कहा कि पेड़ काट दो नहीं तो सजा दूंगा…बढ़ई पेड़ के पास पहुंचा…बढ़ई को देखते ही पेड़ बिलबिला उठा कि मुझे मत काटो…मैं चिड़िया को दाना लौटा दूंगा…

आपको अपनी ताकत को पहचानना होगा…आपको पहचानना होगा कि भले आप छोटी सी चिड़िया की तरह होंगे, लेकिन ताकत की कड़ियां कहीं न कहीं आपसे होकर गुजरती होंगी… हर सेर को सवा सेर मिल सकता है, बशर्ते आप अपनी लड़ाई से घबराएं नहीं…आप अगर किसी काम के पीछे पड़ जाएंगे तो वो काम होकर रहेगा… यकीन कीजिए…हर ताकत के आगे एक और ताकत होती है और अंत में सबसे ताकतवर आप होते हैं…

हिम्मत, लगन और पक्का इरादा ही हमारी ताकत की बुनियाद है…!!

बड़े सपनों को पाने वाले हर व्यक्ति को सफलता और असफलता के कई पड़ावों से गुजरना पड़ता है…

पहले लोग मजाक उड़ाएंगे…

फिर लोग साथ छोड़ेंगे…

फिर विरोध करेंगे…

फिर वही लोग कहेंगे हम तो पहले से ही जानते थे कि एक न एक दिन तुम कुछ बड़ा करोगे!

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तीन सवाल

एक बार एक राजा था। एक दिन वह बड़ा प्रसन्न मुद्रा में था सो अपने वज़ीर के पास गया और कहा कि तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी ख़्वाहिश क्या हैं? वज़ीर शरमा गया और नज़रे नीचे करके बैठ गया। राजा ने कहा तुम घबराओ मत तुम अपनी सबसे बड़ी ख़्वाहिश बताओ। वज़ीर ने राजा से कहा हुज़ूर आप इतनी बड़ी सल्लतनत के मालिक हैं और जब भी मैं यह देखता हूँ तो मेरे दिल में ये चाह जाग्रत होती हैं कि काश मेरे पास इस सल्लतनत का यदि दसवां हिस्सा होता तो मैं इस दुनिया का बड़ा खुशनसीब इंसान होता।

ये कह कर वज़ीर खामोश हो गया। राजा ने कहा कि यदि मैं तुम्हें अपनी आधी जायदाद दे दूँ तो। वज़ीर घबरा गया और नज़रे ऊपर करके राजा से कहा कि हुज़ूर ये कैसे मुनकिन हैं? मैं इतना खुशनसीब इंसान कैसे हो सकता हूँ। राजा ने दरबार में आधी सल्लतनत के कागज तैयार करने का फरमान जारी करवाया और साथ के साथ वज़ीर की गर्दन धड़ से अलग करने का ऐलान भी करवाया। ये सुनकर वज़ीर बहुत घबरा गया। राजा ने वज़ीर की आँखों में आँखे डालकर कहा तुम्हारे पास तीस दिन हैं, इन तीस दिनों में तुम्हें मेरे तीन सवालों के जवाब पेश करना हैं। यदि तुम कामयाब हो जाओगे तो मेरी आधी सल्लतनत तुम्हारी हो जायेगी और यदि तुम मेरे तीन सवालों के जवाब तीस दिन के भीतर न दे पाये तो मेरे सिपाही तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर देंगे।

वज़ीर ओर ज्यादा परेशान हो गया। राजा ने कहा मेरे तीन सवाल लिख लो, वज़ीर ने लिखना शुरु किया। राजा ने कहा….

  • 1) इंसान की जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई क्या हैं?
  • 2) इंसान की जिंदगी का सबसे बड़ा धोखा क्या हैं?
  • 3) इंसान की जिंदगी की सबसे बड़ी कमजोरी क्या हैं?

राजा ने तीनों सवाल समाप्त करके कहा तुम्हारा समय अब शुरु होता हैं। वज़ीर अपने तीन सवालों वाला कागज लेकर दरबार से रवाना हुआ और हर संतो-महात्माओं, साधु-फक़ीरों के पास जाकर उन सवालों के जवाब पूछने लगा। मगर किसी के भी जवाबों से वह संतुष्ट न हुआ। धीरे-धीरे दिन गुजरते हुए जा रहे थे। अब उसके दिन-रात उन तीन सवालों को लिए हुए ही गुजर रहे थे। हर एक-एक गाँवों में जाने से उसके पहने लिबास फट चुके थे और जूते के तलवे भी फटने के कारण उसके पैर में छाले पड़ गये थे।

अंत में शर्त का एक दिन शेष रहा, वजीर हार चुका था तथा वह जानता था कि कल दरबार में उसका सिर धड़ से कलाम कर दिया जायेगा और ये सोचता-सोचता वह एक छोटे से गांव में जा पहुँचा। वहाँ एक छोटी सी कुटिया में एक फक़ीर अपनी मौज में बैठा हुआ था और उसका एक कुत्ता दूध के प्याले में रखा दूध बड़े ही चाव से जीभ से जोर-जोर से आवाज़ करके पी रहा था।

वज़ीर ने झोपड़ी के अंदर झाँका तो देखा कि फक़ीर अपनी मौज में बैठकर सुखी रोटी पानी में भिगोकर खा रहा था। जब फक़ीर की नजर वज़ीर की फटी हालत पर पड़ी तो वज़ीर से कहा कि जनाबेआली आप सही जगह पहुँच गये हैं और मैं आपके तीनों सवालों के जवाब भी दे सकता हूँ। वज़ीर हैरान होकर पूछने लगा आपने कैसे अंदाजा लगाया कि मैं कौन हूँ और मेरे तीन सवाल हैं? फक़ीर ने सूखी रोटी कटोरे में रखी और अपना बिस्तरा उठा कर खड़ा हुआ और वज़ीर से कहा साहिब अब आप समझ जायेंगे।

वजीर ने झुक कर देखा कि उसका लिबास हू ब हू वैसा ही था जैसा राजा उस को भेंट दिया करता था। फक़ीर ने वज़ीर से कहा मैं भी उस दरबार का वज़ीर हुआ करता था और राजा से शर्त लगा कर गलती कर बैठा। अब इसका नतीजा तुम्हारे सामने हैं। फक़ीर फिर से बैठा और सूखी रोटी पानी में डूबो कर खाने लगा। वज़ीर निराश मन से फक़ीर से पूछने लगा क्या आप भी राजा के सवालों के जवाब नहीं दे पाये थे। फक़ीर ने कहा कि नहीं मेरा केस तुम से अलग था।

मैने राजा के सवालों के जवाब भी दिये और आधी सल्लतनत के कागज को वहीं फाड़कर इस कुटिया में मेरे कुत्ते के साथ रहने लगा। वज़ीर ओर ज्यादा हैरान हो गया और पूछा क्या तुम मेरे सवाल के जवाब दे सकते हो? फक़ीर ने हाँ में सिर हिलाया और कहा मैं आपके दो सवाल के जवाब मुफ्त में दूँगा मगर तीसरे सवाल के जवाब में आपको उसकी कीमत अदा करनी पड़ेगी।

अब वजीर ने सोचा यदि बादशाह के सवालों के जवाब न दिये तो राजा मेरे सिर को धड़ से अलग करा देगा इसलिए उसने बिना कुछ सोचे समझे फक़ीर की शर्त मान ली। फक़ीर ने कहा तुम्हारे पहले सवाल का जवाब हैं “मौत”।

इंसान के जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई मौत हैं। मौत अटल हैं और ये अमीर-गरीब, राजा-फक़ीर किसी को नहीं देखती हैं। मौत निश्चित हैं। अब तुम्हारे दूसरे सवाल का जवाब हैं “जिंदगी”। इंसान की जिंदगी का सबसे बड़ा धोखा हैं जिंदगी। इंसान जिंदगी में झूठ-फरेब और बुरे कर्मं करके इसके धोखे में आ जाता हैं,अब आगे फक़ीर चुप हो गया। वज़ीर ने फक़ीर के वायदे के मुताबिक शर्त पूछी, तो फक़ीर ने वज़ीर से कहा कि तुम्हें मेरे कुत्ते के प्याले का झूठा दूध पीना होगा।

वज़ीर असमंजस में पड़ गया और कुत्ते के प्याले का झूठा दूध पीने से इंकार कर दिया। मगर फिर राजा द्वारा रखी शर्त के अनुसार सिर धड़ से अलग करने का सोचकर बिना कुछ सोचे समझे कुत्ते के प्याले का झूठा दूध बिना रुके एक ही सांस में पी गया।फक़ीर ने जवाब दिया कि यही तुम्हारे तीसरे सवाल का जवाब हैं। “गरज” इंसान की जिंदगी की सबसे बड़ी कमजोरी हैं “गरज”। गरज इंसान को न चाहते हुए भी वह काम कराती हैं जो इंसान कभी नहीं करना चाहता हैं। जैसे तुम!

तुम भी अपनी मौत से बचने के लिए और तीसरे सवाल का जवाब जानने के लिए एक कुत्ते के प्याले का झूठा दूध पी गये। गरज इंसान से सब कुछ करा देती हैं। मगर अब वज़ीर बहुत प्रसन्न था क्योंकि उसके तीनों सवालों के जवाब उसे मिल गये थे। वज़ीर ने फक़ीर को शुक्रिया अदा किया और महल की ओर रवाना हो गया। जैसे ही वज़ीर महल के दरवाजे पर पहुँचा उसे एक हिचकी आई और उसने वहीं अपना शरीर त्याग दिया। उसको मौत ने अपने आगोश में ले लिया।

अब हम भी विचार करें कि क्या कहीं हम भी तो जिंदगी की सच्चाई को भूले तो नहीं बैठे हैं? जी हाँ जिंदगी की सच्चाई ये मौत। ये मौत न छोटा देखती हैं न बड़ा, न सेठ साहूकार देखती हैं। ये तो न जाने कब किस को अपने आगोश में ले ले कुछ कहा नहीं जा सकता। क्योंकि ये अटल सत्य हैं और ये हर एक को आनी हैं। क्या हम जिंदगी के धोखे में तो नहीं आ पड़े हैं? हाँ जी बिल्कुल! हम धोखे में ही आये हुए हैं। हम जिंदगी को ऐसे जीते हैं जैसे ये जिंदगी कभी खत्म न होगी। हम जिंदगी में हर रोज नये-नये कर्मों का निर्माण करते हैं। इन कर्मों में कुछ अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे। हम जिंदगी के धोखे में ऐसे फंसे हुए हैं कभी भूल से भी मालिक का शुकर नहीं करते हैं, कभी सच्चे दिल से मालिक का भजन सिमरन नहीं करते हैं। बस जिंदगी को काटे जा रहे हैं। क्या हम भी तो जिंदगी की कमजोरी के शिकार तो नहीं बने बैठे हैं? जी हाँ, हम सभी गरज के तले दबे हुए हैं। कोई अपने परिवार को पालने की गरज में झूठ-फरेब की राह पर चलने लगता हैं तो कोई चोरी और लूटपाट। हम सभी गरज की दलदल में फंसे हुए हैं।

हमें भी चाहिए कि जिंदगी की सच्चाई मौत को ध्यान में रखते हुए, जिंदगी की झूठ में न फंसे। क्योंकि जितना हम जिंदगी की सच्चाई से मुख मोड़ेगें उतना ही हम धोखे का शिकार होते जायेंगे। अत: जिससे हम जीवन भर जिंदगी की कमजोरी गरज के दलदल में ही फंसे रहे और बाहर ही न निकल सकें। इसलिए समय रहते हुए मालिक का भजन सिमरन करते रहे और मालिक को याद करते हुए उनका शुक्रिया अदा करते रहें। क्योंकि न जाने कब मालिक का फरमान आ जाए।

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🏹 रामचरित मानस के कुछ रोचक तथ्य 🏹

  1. लंका में राम जी = 111 दिन रहे।
  2. लंका में सीता जी = 435 दिन रहीं।
  3. मानस में श्लोक संख्या = 27 है।
  4. मानस में चोपाई संख्या = 4608 है।
  5. मानस में दोहा संख्या = 1074 है।
  6. मानस में सोरठा संख्या = 207 है।
  7. मानस में छन्द संख्या = 86 है।
  8. सुग्रीव में बल था = 10000 हाथियों का।
  9. सीता रानी बनीं = 33 वर्ष की उम्र में।
  10. मानस रचना के समय तुलसीदास की उम्र = 77 वर्ष थी।
  11. पुष्पक विमान की चाल = 400 मील/घण्टा थी।
  12. रामादल व रावण दल का युद्ध = 87 दिन चला।
  13. राम रावण युद्ध = 32 दिन चला।
  14. सेतु निर्माण = 5 दिन में हुआ।
  15. नल-नील के पिता = विश्वकर्मा जी हैं।
  16. त्रिजटा के पिता = विभीषण हैं।
  17. विश्वामित्र राम को ले गए = 10 दिन के लिए।
  18. राम ने रावण को सबसे पहले मारा था = 6 वर्ष की उम्र में।
  19. रावण को जिन्दा किया = सुखेन बेद ने नाभि में अमृत रखकर।

श्री राम के दादा-परदादा का नाम

  1. ब्रह्मा जी से मरीचि हुए।
  2. मरीचि के पुत्र कश्यप हुए।
  3. कश्यप के पुत्र विवस्वान थे।
  4. विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए।
  5. वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, जिन्होंने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
  6. इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए।
  7. कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था।
  8. विकुक्षि के पुत्र बाण हुए।
  9. बाण के पुत्र अनरण्य हुए।
  10. अनरण्य से पृथु हुए।
  11. पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ।
  12. त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए।
  13. धुंधुमार के पुत्र युवनाश्व थे।
  14. युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए।
  15. मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ।
  16. सुसन्धि के दो पुत्र हुए – ध्रुवसन्धि और प्रसेनजित।
  17. ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
  18. भरत के पुत्र असित हुए।
  19. असित के पुत्र सगर हुए।
  20. सगर के पुत्र का नाम असमंज था।
  21. असमंज के पुत्र अंशुमान हुए।
  22. अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए।
  23. दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, जिन्होंने गंगा को पृथ्वी पर उतारा।
  24. भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे।
  25. ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, जिनके कारण इस वंश का नाम रघुवंश पड़ा और श्री राम के कुल को रघु कुल कहा गया।
  26. रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए।
  27. प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे।
  28. शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए।
  29. सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था।
  30. अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए।
  31. शीघ्रग के पुत्र मरु थे।
  32. मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे।
  33. प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष थे।
  34. अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था।
  35. नहुष के पुत्र ययाति थे।
  36. ययाति के पुत्र नाभाग थे।
  37. नाभाग के पुत्र अज थे।
  38. अज के पुत्र दशरथ थे।
  39. दशरथ के चार पुत्र – राम, भरत, लक्ष्मण, और शत्रुघ्न थे।

इस प्रकार, ब्रह्मा की 39वीं पीढ़ी में श्री राम का जन्म हुआ।

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इच्छायें और संतुष्टि

एक सिद्ध महात्मा से मिलने पहुंचे एक गरीब दम्पत्ति ने देखा कि कूड़े के ढेर पर सोने का चिराग पड़ा हुआ था।
दम्पत्ति ने महात्मा से पूछा तो महात्मा ने बताया कि यह तीन इच्छायें पूरी करने वाला बेकार चिराग है। यह बहुत खतरनाक भी है, जो इसको उठाकर ले जाता है, वापस यहीं कूड़े में फेंक जाता है।
गरीब दम्पत्ति ने जाते समय वह चिराग उठा लिया और घर पहुंचकर उससे तीन वरदान मांगने बैठ गए।

दम्पत्ति गरीब थे और उन्होंने सबसे पहले दस लाख रुपये मांगकर चिराग को टेस्ट करने की सोची।
जैसे ही उन्होंने रुपये मांगे तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। जाकर खोला तो एक आदमी रुपयों से भरा बैग और एक लिफाफा थमा गया।
लिफाफे में एक पत्र था जिसमें लिखा हुआ था कि मेरी कार से टकराकर आपके पुत्र की मृत्यु हो गई, जिसके पश्चात्ताप स्वरूप ये दस लाख रुपये भेज रहा हूँ। मुझे माफ करियेगा।

अब दम्पत्ति को काटो तो खून नहीं। पत्नी दहाड़े मार कर रोने लगी।
तभी पति को ख्याल आया और उसने चिराग से दूसरी इच्छा बोल दी कि उनका बेटा वापस आ जाए।
थोड़ी देर बाद दरवाजे पर दस्तक हुई और पूरे घर में अजीब सी आवाजें आने लगीं। घर के बल्ब तेजी से जलने बुझने लगे। उनका बेटा प्रेत बनकर वापस आ गया था।

दम्पत्ति ने प्रेत रूप देखा तो बुरी तरह डर गए, और हड़बड़ी में चिराग से तीसरी इच्छा के रूप में प्रेत रूपी पुत्र की मुक्ति मांग ली।
बेटे की मुक्ति के बाद रातों-रात वे आश्रम पहुंचे, चिराग को कूड़े के ढेर पर फेंक कर दुखी मन से वापस लौट आए।

मित्रों, हम सभी अपनी जिंदगी में उस दम्पत्ति की तरह हैं। हमारी इच्छायें बेहिसाब हैं।
जब एक इच्छा पूरी होती है तो दूसरी सताने लगती है, और जब दूसरी पूरी हो जाये तो तीसरी।
इसलिए ईश्वर ने हमें जो भी दिया है, उसमें संतुष्ट रहना चाहिए।

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निंदा की लीद

प्राचीन समय की बात है।

काशीनरेश ने एक बार रात्रि में स्वप्न देखा। स्वप्न में देवदूत ने उनसे कहाः
“नरेश ! तुम बड़े पुण्यात्मा हो। तुम्हारे लिए स्वर्ग में एक आवास बना है और जब चाहो तब तुम उसमें आराम कर सकते हो।”

यह देखकर राजा को अपने पुण्यात्मा होने का गर्व हुआ। गर्व मनुष्य की योग्यता को मार डालता है। राजा को हुआ कि जब स्वर्ग में मेरे लिए आवास की तैयारी है तो अब मुझे क्या चिन्ता?

अज्ञानी जीव को जब संसार की तुच्छ चीजें भी मिल जाती हैं तो वह निरंकुश हो जाता है।

एक बार काशीनरेश जंगल में गया तो खुशनसीबी से वहाँ उसे एक महात्मा का झोंपड़ा दिखा। उसने सोचाः ‘चलो, जरा सुन लें महात्मा के दो वचन।’

महात्मा के पास जाकर उसने पुकारा किन्तु महात्मा तो बैठे थे निर्विकल्प समाधी में। वे क्या जवाब देते? राजा को हुआ किः ‘मैं काशी नरेश ! इतना धर्मात्मा ! ये मेरे राज्य में रहते हैं फिर भी मेरी आवाज तक नहीं सुनते ! इनको कुछ सबक सिखाना चाहिए।

सत्ता और अहंकार आदमी को अंधा बना देते हैं। राजा ने घोड़े की लीद उठाकर बाबा के सिर पर रख दी। संत तो समाधिस्थ थे किन्तु प्रकृति से यह न सहा गया।

थोड़े दिन बाद पुनः वही देवदूत राजा के सपने में दिखा और कहाः
“राजन ! स्वर्ग में तुम्हारे लिए जो आवास बना था, वह तो है किन्तु पूरा लीद से भर गया है। उसमें एक मक्खी तक के लिए जगह नहीं है तो तम उसमें कैसे घुस सकोगे?”

राजा समझ गया किः ‘अरे ! संत का जो अपमान किया था, उसी का यह परिणाम है।’ जिनके चित्त में इच्छा और द्वेष नहीं है उनको आप जैसी चीज देते हो वह अनंतगुनी हो जाती है। आप अगर आदर देते हो तो आपका आदर अनंतगुना हो जाता है। अगर आप उनसे प्रीति करते हो तो आपके हृदय की प्रीति अनंतगुनी हो जाती है। आप उनमें दोष देखते हो या उनसे द्वेष करते हो तो आपके अंदर अनेक दोष आ जाते हैं। जैसे, खेत में आप जो बोते हो वही उगता है। हो सकता है कि खेत में कोई बीज न भी उगे, किन्तु ब्रह्मवेत्ता के खेत में तो सब उग जाता है। तभी नानक देव जी ने कहा हैः

करनी आपो आपणी, के नेड़े के दूर।

अपनी करनी से ही आप अपने भगवान के, महापुरुषों के करीब महसूस करते हो और अपनी ही करनी से आप अपने को उनसे दूर महसूस करते हो।

कभी हम अपने को ईश्वर के नजदीक महसूस करते हैं और कभी दूर महसूस करते हैं क्योंकि हम जब इच्छा और द्वेष के चंगुल में आ जाते हैं तो ईश्वर से दूरी महसूस करते हैं और सात्त्विक भाव में आते हैं तो ईश्वर के नजदीक महसूस करते हैं। किन्तु यदि इच्छा और द्वेष से रहित हो गये तो फिर ईश्वर और हम दो नहीं बचते बल्कि ‘हम न तुम, दफ्तर गुम…’ ऐसी स्थिति आ जाती
है।

उस काशी नरेश ने देवदूत की बात समझ ली कि मैंने महापुरुष का अपमान किया इसलिए स्वर्ग में मेरा जो आवास था, वह लीद से भर गया है।

सुबह उठकर उसने वजीरों से बात कीः “कैसे भी करके वह लीद का भण्डार खाली हो जाये ऐसी युक्ति बताओ।”

चतुर वजीरों ने कहाः “राजन ! एक ही उपाय है। आप ऐसा कुछ प्रचार करवाओ ताकि लोग आपकी निंदा करने लग जायें। लोग जितनी निंदा करेंगे उतनी लीद उनके भाग्य में चली जायेगी। आपका निवास साफ हो जायेगा।”

राजा ने न किये हों ऐसे दुराचरणों का, दुर्व्यवहारों का कुप्रचार राज्य में करवाया और लोग राजा की निंदा करने लगे। कुछ ही दिनों के बाद देवदूत ने स्वप्न में आकर कहाः

“राजन ! तुम्हारा वह करीब-करीब खाली हो गया है। अब एक कोने में थोड़ी सी लीद बच गयी है। वह लीद तुमको ही खानी पड़ेगी।”

राजा ने देवदूत से प्रार्थना कीः “उसको खत्म करने का उपाय बता दीजिए।”

देवदूतः “नगर के और लोग तो तुम्हारे दुराचरणों का प्रचार सुनकर निंदा करने लग गये हैं लेकिन एक लुहार ने तुम्हारी अभी तक निंदा नहीं की क्योंकि वह लुहार सोचता है कि जब ‘जब ईश्वर ने सृष्टि बनाई तो मैं क्यों किसी की निंदा सुनकर द्वेष करूँ और किसी की प्रशंसा
सुनकर इच्छा करूँ? मैं इच्छा-द्वेष नहीं करता। मैं तो मस्त हूँ अपने आप में’ वह है तो लुहार लेकिन है मस्त… इच्छा-द्वेष से बचा हुआ है। वह लुहार अगर तुम्हारी थोड़ी-सी निंदा कर ले तो तुम्हारे महल की एकदम सफाई हो जायेगी।”

यह सुनकर राजा वेश बदल कर लुहार के पास आया और राजा की निंदा करने लगा। तब लुहार ने कहाः

“आप भले राजा की निंदा करो लेकिन मैं आपके चक्कर में आने वाला नहीं हूँ। अब बाकी की बची जो लीद है, वह आपको ही खानी पड़ेगी। मुझे मत खिलाओ।”

तब राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछाः “तुम कैसे जान गये?”
लुहारः “परमात्मा सर्वव्यापक है। वह मेरे हृदय में भी है। ये देवदूत या देवता क्या होते हैं? सबको सत्ता देने वाला अनंत ब्रह्माण्डनायक मेरा आत्मा है। वेश बदलने पर भी आपको मैं जान गया और देवदूत आपको सपना देता है यह भी जान गया। वह लीद आपको ही खानी पड़ेगी।”

जब इच्छा और द्वेष होता है तभी सब उलटा दिखता है। जिसके जीवन में इच्छा-द्वेष नहीं होते उसे सब साफ-साफ दिखता है। जैसे, दर्पण के सामने जो भी रख दो वह साफ-साफ दिखता है वैसे ही इच्छा-द्वेषरहित महापुरुषों का हृदय होता है। श्रीकृष्ण के ये दो ही वचन अगर जीवन में उतर जायें तो काफी हैं।

अज्ञानता को कैसे दूर किया जा सकता है? श्रेष्ठ कर्मों के आचरण से अपने पापों को नष्ट करके मनुष्य द्वन्द्व रूप मोह को दूर कर सकता है एवं प्रभु का भजन दृढ़ता पूर्वक कर सकता है।

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