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ईश्वर को दोष – Blaming God

हम जीव स्वयं को इतना चालाक समझते हैं कि हर बुरे कर्मों के फल का जिम्मेदार या दोष ईश्वर को देते हैं और जब सुख के पल हमारे जीवन में आते हैं तब हम कहते हैं कि ये सब हमारी मेहनत के फल का नतीजा हैं। यानि हर बुरे कर्मों के फल का जिम्मेदार परमात्मा और हर अच्छे कर्मों के फल का श्रेय हम स्वयं को देते हैं।

अब आईये हम बारिकी से समझे की कैसे हम ईश्वर को हर बुरे कर्मों के फल का दोषी मानते हैं। ईश्वर ने हम सभी को एक समान इस धरती पर भेजा था, मगर जात-पात, धर्म, भेद-भाव, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब यह सब किसने बनाया?? हम इंसानों ने बनाया।

अब देखे एक व्यक्ति जो बहुत अधिक शराब का सेवन करता हैं और अंत में जब बीमार होता हैं तो इलाज के लिए डाक्टर को दिखाता हैं, डाक्टर उसे बताता हैं कि अापके लीवर खराब हो गये हैं। अब वह व्यक्ति ईश्वर को दोष देना शुरु कर देता हैं कि ईश्वर ने मेरे स्वास्थ को स्वस्थ नहीं रखा। भई ईश्वर ने तो नहीं कहा था न कि आप धरती पर जाओ और खुब मजे से शराब का सेवन करो और मैं तुम्हे कुछ नहीं होने दुंगा। गलत कर्म हम करे और दोष ईश्वर को दें।

ऐसे ही एक जगह ओर विचार करें एक व्यापारी जिसे अपने व्यापार में बहुत घाटा (नुकसान) होता हैं वो भी इसके लिए ईश्वर को कोसता हैं कि ईश्वर ने मेरे साथ ऐसा किया, और एक व्यापारी जिसे अपने व्यापार में बहुत मुनाफा (लाभ) होता हैं तो वो ईश्वर का शक्रिया करने की बजाय उस लाभ का श्रेय स्वयं को देता हैं कि ये सब इतनी धन-दौलत मैने अपनी मेहनत से कमाई हैं।

अब हम स्वयं विचार करे कि ईश्वर के रज़ा के बिना तो एक पत्ता तक नहीं हिलता तो किसी व्यापारी को घाटा और किसी व्यापारी को मुनाफा कैसे हो सकता हैं। जबकि ईश्वर ने हम सभी को एक समान इस धरती पर भेजा था तो इतना फर्क क्यों करेगा ईश्वर हम सभी के साथ। यह सब हमारे कर्मों के फल का नतीजा हैं, जो हमारे भाग्य में लिखा हैं न हमें उससे कम मिलेगा और न ही ज्यादा।

जैसे किसी पिता की दो संतान हैं, एक बेटा सपूत हैं और एक कपूत तो पिता उनमें तो कोई फर्क नहीं करेगा ना। उसे तो दोनो ही प्यारे हैं फिर चाहे वो कपूत बेटे को थोड़ा डांट देगा, उस पर गुस्सा करेगा , मगर खुद से जुदा तो नहीं करेगा ना। ऐसे ही हम सभी उस एक परमात्मा की संतान हैं। उसने हम सभी को एक समान भेजा था, ये तो सब हमारे कर्मों के फल हैं जिस कारण हमें सुख-दुख दोनों को भोगना लिखा हैं। हमें तो हर वेले ईश्वर का शुकर करना चाहिए कि हे ईश्वर मैं तेरा रज़ा में राजी हूँ, जिस हाल में तू रखे, हर पल तेरा शुकराना हैं।

इसीलिए हम जीव भी विचार करें और अपने जीवन की बची सांसो व पलों में शुभकर्म करते रहें ताकि इस चौरासी की जेलखाने के फिर से कैदी न बनकर मालिक से मिलाप करें।

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प्रार्थना की अद्भुत ताकत – Power of Prayer

प्रार्थनाएं भी नष्ट कर सकती हैं आपका जीवन, भूल से भी ना करें ये गलतियां

प्रार्थना की अद्भुत ताकत

सकारात्मकता वो चीज है, जो बुरी चीजों को भी अच्छा नजरिया देती है। आप यकीन करें या ना करें, लेकिन सकारात्मक सोच अनहोनी चीजों को भी होनी में बदल सकती है। प्रार्थना में यह सकारात्मकता देने की अद्भुत ताकत है, लेकिन ये पूरी तरह प्रार्थना करने के तरीके पर निर्भर करता है। कहीं आपकी प्रार्थना भी ऐसी तो नहीं होती? आजमाकर देखिए, ये आपको जरूर लाभ देगा।

जीवन में हालातों से परेशान होना कोई नई बात नहीं, ना ही इसे अनुभव करने वाला दुनिया का कोई अजूबा है। संसार में हर प्राणी समस्याओं से घिरा है, जो सामान्य बात है, पर हां, कोई इनसे कैसे निकलता है, हर मनुष्य की सोच के साथ निदान पाने की वो प्रक्रिया हर बार बहुत नयी होती है।

प्रार्थना भी परेशानियों से निकलने की वही प्रक्रिया है। अध्यात्म में इसका बेहद महत्व है। आप कर्मकांड मानने वाले हैं या विशुद्ध सांसारिक प्राणी आस्तिक हों या नास्तिक, लेकिन प्रार्थना अध्यात्म की वो प्रक्रिया है जो नश्वर संसार में मनुष्य को प्रकृति या ईश्ववर से जोड़ती है।

आप ईश्वर को मानते हों या अल्लाह या यीशु को।। हर रूप में आपका विश्वास एक अदृश्य शक्ति के साथ जुड़ा है। हो सकता है कि इनमें आप किसी को भी ना मानते हों और ‘स्वयं या आत्मशक्ति’ ही आपके अनुसार सर्वशक्तिशाली हो, या चाहे आप प्रकृति की पूजा करते हों

उपरोक्त हर स्थिति में किसी क्षण, किसी भी तरह आपने एक प्रार्थना जरूर की होगी, कोई इच्छा जरूर प्रकट की होगी कि “काश ऐसा हो जाए या काश! ऐसा ना हो!” आपकी इसी चाह में एक बहुत बड़ा रहस्य छुपा है और आपके सफल या असफल होने की ताकत भी!

इसे जानने से पूर्व सर्वप्रथम खुद से ईमानदारी से इन सवालों के जवाब पूछिए: “क्या कभी आपने किसी और के लिए कुछ नहीं करते हुए अपने लिए अच्छा करने की प्रार्थना या इच्छा की है?”;

क्या आपकी हर प्रार्थना या इच्छा में किसी ना किसी रूप में ‘नहीं’ शब्द शामिल होता है?”; “क्या कभी अपनी प्रार्थना में इच्छाएं पूरी करने की चाह के अलावा ‘पूरी हुई इच्छाओं के लिए धन्यवाद’ किया है आपने?”

आप जिस भी धर्म को मानते हों, या आत्मशक्ति को मानने वाले हों, यकीन कीजिए जैसे ही आप अपनी इच्छाओं में ‘नहीं’ शब्द जोड़ते हैं, आपकी चीजें नकारात्मक शक्तियों के साथ जुड़ जाती हैं।

एक प्रेरक प्रसंग के अनुसार भगवान ‘नहीं’ शब्द सुनने से वंचित हैं। इसलिए जब भी आप “हे भगवान! काश कि ऐसा नहीं हो” या “काश कि ऐसा नहीं हो!” सोचते हैं या प्रार्थना करते हैं, तो उस अदृश्य शक्ति के पास ‘नहीं’ को हटाते हुए वह इस रूप में पहुंचती है: “हे भगवान! काश कि ऐसा हो!” या “काश कि ऐसा हो!” दूसरे शब्दों में, इस तरह अनजाने में आप जो नहीं चाहते हैं, वही होने की प्रार्थना कर रहे होते हैं।

इसी तरह जब आप किसी का बुरा चाहते हुए अपना अच्छा करने की सोचते हैं, तो इसका सीधा अर्थ किसी के लिए कुछ ‘नहीं’ करते हुए आपके लिए कुछ करने का होता है। यहां भी अध्यात्म का यह नियम लागू होता है। इसलिए अक्सर आपने देखा होगा और कहा भी जाता है कि बुरा चाहने वालों का खुद ही बुरा होता है।

वास्तविकता की जमीन पर यह कोई चमत्कृत करनी वाली चीज या टोटका नहीं है, लेकिन यह आपकी सोच को वह दिशा देता है जो आपके उस काम को पूरा करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। और वह दिशा है ‘सकारात्मक या नकारात्मक सोच’!

आप जीवन में घोर निराशा का सामना कर रहे हों; किसी मुश्किल सी लगने वाली चीज को सफलतपूर्वक करना चाहते हों; आपके लिए जो विकट परिस्थितियां ला सकता है, ऐसे व्यक्ति या ऐसी स्थिति से बचना चाहते हों।। वहां ‘प्रार्थना’ शब्दों का वह रूप है जो आभासी अस्तित्व के साथ मस्तिष्क के किसी कोने में आपको यह यकीन दिलाता है कि ‘ऐसा हो सकता है’।

यह एक संभावना आपके लिए उस क्षण में बहुत छोटी ही क्यों ना हो, लेकिन कहीं ना कहीं आपके अंतर्मन को उस कार्य या चाह के सफल होने का विश्वास दिलाती है। यह आपको दोगुने प्रयासों से उस कार्य को करने के लिए प्रेरित करता है और आप ऐसा करते भी हैं।

वही प्रयास आपके उस कार्य को सकारात्मक या नकारात्मक रूप में सफल होने की ओर अग्रसर करते हैं। इसे इस तरह समझ सकते हैं।

फर्ज कीजिए, आपने सोचा कि “काश ऐसा नहीं होता!” इस वाक्य में एक नकारात्मकता जुड़ी है, जो सीधे-सीधे इस संभावना से जोड़ता है कि इस कार्य के होने की उम्मीद बहुत कम है।

चेतन मन में आप चाहे समझ ना पाएं, लेकिन ये आपको निराशा से ऊपर उठने नहीं देता और आप उस काम में अपना पूरा योगदान नहीं दे पाते, या बेमन से करते हैं क्योंकि कहीं आपकी सोच में ये पहले ही तय होता है कि इसका होना मुश्किल है।

दूसरी तरफ जब आप सोचते हैं “काश ऐसा होता!”। तो सीधे-सीधे आपके मस्तिष्क तक यह संदेश जाता है कि बहुत संभव है, यह कार्य पूरा हो ही जाए। अचेतन मस्तिष्क में ये आपमें उत्साह भरता है और आप पहले से भी ज्यादा लगन से काम करते हैं। जो उसे हर हाल में सफल बनाता है।

यह कोई जादू या चमत्कार नहीं होता, बल्कि पूरी तरह आपकी सकारात्मक सोच का प्रभाव होता है। नकारात्मक सोच आपको निष्क्रिय बनाती है, जो हर प्रकार से आपको असफलता देने और मन के विपरीत कार्यों के होने का कारण बनते हैं।

इससे ठीक उलट, सकारात्मक सोच आपको विपरीत से विपरीत और कठोर से कठोर परिस्थितियों में भी विजयी बनने के लिए प्रेरित करते हैं। यह आपसे ना सिर्फ कोशिश, बल्कि बार-बार कोशिशें कराता है और अंतत: वही होता है जो आप चाहते हैं।

इसलिए हमेशा याद रखें, विकट परिस्थितियों में भी प्रार्थना करना मनुष्य के लिए संजीवनी बूटी के समान है, जो उसमें मनोनुकूल चीजें होने के लिए उम्मीद की किरण जगाती है। किंतु प्रार्थना हमेशा सिर्फ अच्छे स्वरूप में हो। अपनी अच्छी चाह को सोचें, बुरी चाह को शब्दों का रूप ना लेने दें।

आपको पता नहीं चलता कि कब बुरी चाह आपकी सोच में आ जाती है। इस तरह नकारात्मकता को आप अपने जीवन से दूर नहीं रख पाते। इसलिए जब भी प्रार्थना करें या कोई इच्छा स्वयं से या किसी और से प्रकट करें, सोच के शब्दों पर ध्यान दें कि किसी भी वाक्य में ‘ना या नहीं’ शब्द हर रूप में दूर रहे।

अभ्यास से यह संभव है। शुरुआत में कई बार आपको लगेगा कि ऐसा कैसे संभव है, पर हर भाषा में वाक्यों के दो स्वरूप होते हैं, एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक।

आप पहले स्वरूप को हर बार उपयोग करने की कोशिश करें। “किसी भी वाक्य में ‘ना या नहीं’ शब्द हर रूप में दूर रहे।” को इस प्रकार भी लिखा जा सकता था – “किसी भी वाक्य में ‘ना या नहीं’ शब्द किसी भी तरह प्रयोग ना करें”, जो नकारात्मक वाक्यों की श्रेणी में आएगा।

लोग अक्सर ‘धन्यवाद’ शब्द का अर्थ ‘औपचारिक व्यवहार’ के लिए लेते हैं, जबकि इससे इतर यह हमारे जीवन में कई बेहद महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाता है।

किसी कार्य के सफल संपादन के लिए ‘धन्यवाद ज्ञापन’ का अर्थ है खुद को यह विश्वास दिलाना कि हां, आप ऐसा करने में सक्षम रहे! हो सकता है आप धन्यवाद किसी और को कह रहे हों, किंतु अगर आप ऐसा कह रहे हैं तो निश्चित तौर पर इसलिए क्योंकि आपका कोई काम सफल हुआ है।

किसके कारण सफल हुआ, यह वहां मायने नहीं रखता, क्योंकि किसी और के कारण या किसी और के प्रयासों से भी कुछ ऐसा होना जो आपके लिए अच्छा रहा, इसका अर्थ यही है कि आपने उसे सफल बनाने के लिए उस माध्यम को चुनने में प्रयास किए और इसलिए ये आपकी सक्षमता है।

इसलिए बहुत ज़रूरी है कि जब भी परेशानियों के बाद उससे निजात मिलने का एहसास आए या कुछ बहुत मुश्किल हल हो जाना समझ आए, तो इसके लिए भगवान, प्रकृति या स्वयं, जिसमें भी आप विश्वास रखते हों, उसे धन्यवाद करना ना भूलें।

यह आपका आत्मविश्वास बढ़ाता है और अगली बार आपके सफल होने की संभावनाएं दोगुनी बढ़ जाती हैं। इसमें भी वही सकारात्मक और नकारात्मक सोच की और उसके साथ की स्थितियां पैदा होने के मूल नियम लागू होते हैं।

इनकी सफलता निश्चित है, आजमाइए और हमें बताइए कितना बदला इसने आपके जीवन को!

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परमात्मा से रिश्ता – Relationship with God

परमात्मा से रिश्ता

कहते हैं कि, अगर किसी के साथ रिश्ता बनाना हो तो, उसके लिये समय निकालना पड़ता है, उससे प्यार करना पड़ता है, तब जाकर कहीं एक रिश्ता बनता है I

फिर हमने कैसे सोच लिया कि, मंदिर गये, घण्टी बजाया और प्रसाद लिया, चलो भगवान से रिशता बन गया,

नहीं
उससे रिश्ता बनाना है तो, उस परमात्मा के लिये समय निकालना पडेगा, उसे याद करना पडेगा, उससे प्यार करना पडे़गा, तब जाकर वो मिलेगा….

जब हम कोई कपड़ा धोते हैं तो बगैर इस्त्री किये नहीं पहनते।
अगर कपडे में ज्यादा सिलवटे हो, तो इस्त्री ज्यादा गर्म करनी पड़ती है और, अगर सिलवटे फिर भी ना निकले तो हम पानी का छिड़काव करते हैं, जिससे इस्त्री की गर्मायीश और ज्यादा हो जाती है और सिलवटें निकल जाती है।

इसी तरह मालिक हमारी रुह को जब इस्त्री करते हैं तो उस पर से कर्म रूपी सिलवटें हटाने के लिए अलग-अलग तापमान की गर्माईश देते हैं। अगर आप बहुत ज्यादा परेशानी में हैं तो समझ लेना कोई सिलवट गहरी होगी जिसे निकालने के लिए उस मालिक ने इस्त्री की गर्मी बढ़ाई है।

इस कठिन घड़ी के बाद हमारी रुह उस कुल मालिक के लायक बन जाएगी।

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दुख से कैसे छूटें – Get Rid of Sufferings

दुख से सदा-सर्वदा के लिए कैसे छूटें…?

हर कोई दुख से छूटना चाहता है, सुख के तलाश में रहता है ।
लेकिन सुख बाजार में मिलने वाली चीज थोड़े है जिसे पैसा देकर खरीदा जा सके-

‘सुख खोजन को जग चला

सुख नहि हाट बिकात।’

सुख के लिए प्रयास करते रहने पर भी सुख नहीं मिलता, अथवा कम मिलता है, जितना चाहिये उतना नहीं मिलता।
और दुख के लिए कोई प्रयास नहीं करता फिर भी दुख मिलता ही रहता है, हर कोई दुखी होता है।

कहते हैं गर्भ में जीव को बहुत कष्ट मिलता है, और उसके बाद जन्म के समय असहनीय पीड़ा होती है, इसी तरह मृत्यु के समय भी असहनीय पीड़ा होती है।

गोस्वामीजी श्री तुलसी दास जी ने कहा भी है:-

“जनमत मरत दुसह दुख होई”

गर्भ के समय और जन्म के समय की पीड़ा किसी को याद नहीं रहती और मर जाने के बाद मरते समय की पीड़ा भी चली जाती है।

लेकिन जन्म और मृत्यु के बीच का समय जो जीवन कहलाता है, इसमें जीव को कितनी पीड़ा होती है।

कभी काम न बनने से, कभी बने हुए काम के बिगड़ जाने से पीड़ा होती है, मनोनुकूल काम न होने से पीड़ा होती है।

कभी किसी के बिछुड़ने से तो कभी किसी के मिलने से पीड़ा होती है, कभी रोग से, कभी शोक-संताप से पीड़ा होती है।

जीवन में पीड़ा अथवा दुख के ना जाने कितने अवसर आते रहते हैं।

यदि जीवन के सुख, शांति के अवसरों की तुलना दुख और अशांति के अवसरों से की जाए तो यही सामने आएगा कि सुख-शांति के अवसर कम और दुख-अशांति के अवसर ही ज्यादा है।

जीवन में भटकाव बहुत है, स्थिरता कम है, ऐसा लगता है जीवन पीड़ा सहने का ही दूसरा नाम है।

बचपन से लेकर अंत तक जीव कितनी बार दुखी होता है क्या कोई गिन सकता है, कितनी बार रोता है, कितनी बार कुछ पाने के लिए तरसता है, या कुछ खोकर रोता है।

आशांति में जीता हुआ शांति की आसा में जीवन समाप्त होता जाता है, फिर बुढ़ापे की पीड़ा जिसे कोई भी नहीं चाहता।

फिर जीवन मिलता है, फिर ऐसे ही जीवन जाता है, इन दुखों से सदा-सदा के लिए छुटुकारा कैसे मिलेगा?

दुख से सदा-सदा के लिए छूट जाने के लिए ही भगवान के शरणागति की जरूरत है, भक्ति की जरूरत है।

साधु, संत और सदग्रंथ कहते हैं कि बिना राम जी से जुड़े जीवन में दुख का अंत नहीं है, भटकाव रुकने वाला नहीं है, सच्ची शांति मिलने वाली नहीं है, इसलिए भगवान राम से जुड़ने की जरूरत है।

सच्चे मन से यदि कोई राम जी से जुड़ जाय तो फिर अशांति कहाँ और दुख कहाँ?

राम जी सारे संसार को विश्राम देने वाले हैं, सही विश्राम तो रामजी की शरणागति से ही मिल सकती है और कोई उपाय नहीं है।

॥ जय श्री सीताराम ॥

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आध्यात्मिक परिपक्वता – Spiritual Maturity

आध्यात्मिक परिपक्वता क्या है?

जब आप दूसरों को बदलने के प्रयास छोड़ के स्वयं को बदलना प्रारम्भ करें। तब आप आध्यात्मिक कहलाते हो

जब आप दुसरे जैसे है, वैसा उन्हें स्वीकारते हो तो आप आध्यात्मिक हो।

जब आप समझते है कि हर किसी का दृष्टिकोण उनके लिए सही है, तो आप आध्यात्मिक हो।जब आप घटनाओं और हो रहे वक्त का स्वीकार करते हो, तो आप आध्यात्मिक हो।

जब आप आपके सारे संबंधों से अपेक्षाओं को समाप्त करके सिर्फ सेवा के भाव से संबंधों का ध्यान रखते हो, तो आप आध्यात्मिक हो।

जब आप यह जानकर के सारे कर्म करते हो की आप जो भी कर रहे हो वो दुसरो के लिए न होकर के स्वयं के लिए कर रहे हो, तो आप आध्यात्मिक हो।

जब आप दुनिया को स्वयं के महत्त्व के बारे में जानकारी देने की चेश्टा नहीं करते , तो आप आध्यात्मिक हो।

अगर आपको स्वयं पर भरोसा रखने के लिए और आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए दुनियां के लोगों के वचनों की या तारीफों की ज़रूरत न हो तो आप आध्यात्मिक हो।

अगर आपने भेदभाव करना बंद कर दिया है, तो आप आध्यात्मिक हो।

अगर आपकी प्रसन्नता के लिए आप सिर्फ स्वयं पर निर्भर है, दुनिया पर नहीं,तो आप आध्यात्मिक हो।

जब आप आपकी निजी ज़रूरतों और इच्छाओं के बीच अंतर समझ के अपने सारे इच्छाओं का त्याग कर पातें है , तो आप आध्यात्मिक हो।

अगर आपकी खुशियां या आनंद भौतिक, पारिवारिक और सामाजिकता पर निर्भर नहीं होता, तो आप आध्यात्मिक हो।

आइये कुछ आध्यात्मिक परिपक्वता की ओर बढे।

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