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लोभ छलता है

किसी नगर में एक बहुत ही संपन्न सेठ रहता था। उसका व्यापार दिन दूनी और रात चौगुनी उन्नति कर रहा था। इतनी समृद्धि के बावजूद सेठ का लोभ बढ़ता ही जा रहा था। वह अधिक से अधिक धन कमाने में लगा रहता और कंजूस इतना कि किसी याचक को एक कौड़ी नहीं देता था।

एक दिन उसके द्वार पर एक फक्कड़ साधु आया और उससे कुछ देने की प्रार्थना की। उस दिन सेठ को न जाने क्या हुआ कि उसने एक पैसा साधु की झोली में डाल दिया। साधु उसे भगवान का प्रसाद देकर आशीर्वचन कहता हुआ चला गया।

सेठ तब आश्चर्यचकित रह गया, जब शाम को उसे प्रसाद के दोने में सोने की एक अशर्फी प्राप्त हुई। अशर्फी मिलने से उसे एक ओर जहां अत्यंत प्रसन्नता हुई, वहीं अफसोस भी हुआ कि उसने साधु को एक पैसा ही क्यों दिया।

अगले दिन साधु फिर आया। लोभी सेठ तो उसकी प्रतीक्षा में ही बैठा था। इस बार साधु के झोली फैलाते ही सेठ ने मुट्ठीभर पैसे उसमें डाल दिए। साधु पुन: उसे प्रसाद व आशीष देकर चला गया। सेठ शाम होने की प्रतीक्षा करने लगा। रात हो गई, लेकिन अशर्फी प्राप्त नहीं हुई।

सेठ अब सिर धुनने लगा कि मेरे पैसे भी चले गए और अशर्फी भी नहीं मिली।

तभी सेठ की धर्मपरायण पत्नी ने उसे समझाया, “दुख मत मनाइए, यह सबक लीजिए कि त्याग फलता है, जबकि लोभ छलता है।” पत्नी की इस बात ने सेठ की आंखें खोल दीं।

कथा का सार यह है कि नि:स्वार्थ भाव से किया गया दान हमेशा अच्छा प्रतिफल देता है, जबकि इसके विपरीत स्थिति में किया गया दान न उपलब्धि देता है, न आत्मसंतोष।

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