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मैं जो चाहता हूँ – What I want

एक बार किसी महाराज ने किसी दूसरे राजा पर चढ़ाई में विजय प्राप्त कर ली । उस चढ़ाई में उस राजा के कुटुम्ब के सभी लोग मारे गये । अंत में महाराज ने सोचा कि अब वह राज्य नहीं लेगा और राज्य में जो कोई बचा हो उसको यही राज्य सौंप देंगे। ऐसा विचार कर महाराज अपने वंशज की तलाश करने के लिए निकला । एक आदमी जो घर-गृहस्थ छोड़कर जंगल में रहता था, वही बच गया था ।

महाराज उस पुरुष के पास गये और। बोले, “जो कुछ चाहते हो वह ले लो ।” महाराज ने यह सोचकर बोला कि वो राज्य माँग ले क्योंकि उससे बढ़कर और क्या माँगेगा । इसलिए कहा, “जो इच्छा है वो ले लो ।” वह पुरुष बोला, “मैं जो कुछ चाहता हूँ वो आप देंगे ?” महाराज बोले, “हाँ-हाँ दे दूँगा ।”

वह पुरुष बोला, “महाराज ! हमें ऐसा सुख दो कि जिसके बाद फिर कभी दुःख नहीं आये ।” विचारने वाली बात है यहाँ कि संसार में ऐसा कौनसा सुख है जिसके बाद फिर कभी दुःख की प्राप्ति न हो ? सुख तो ज्ञान स्वभाव में रहने में ही है क्योंकि यदि ज्ञान में रहेंगे और ज्ञान से ही जानेंगे तो बाहरी वस्तुओ की इच्छा स्वतः ही समाप्त हो ज्एगी और सुख अपने आप प्राप्त हो जाएगा । वास्तव में संसार में ऐसा कोई सुख नहीं है जिसके बाद दुःख न आता हो। फिर महाराज ने हाथ जोड़कर कहा कि, “क्षमा करो । मैं इस चीज को तो नहीं दे सकता । दूसरी और कोई चीज माँगिये ।”

वह पुरुष बोला, “फिर हमको ऐसा जीवन दो कि हमारा मरण कभी न हो ।” जीवन-मरण तो शरीर से संयोग-वियोग होने का नाम है । आत्मा का जीवन-मरण कभी भी नहीं होता है । आत्मा तो अमर तत्व है । महाराज ने फिर हाथ जोड़कर कहा कि, “मैं यह भी नहीं दे सकता । आप कुछ और माँग लीजिए ।” वह पुरुष बोला, “अच्छा कुछ और नहीं तो हमको ऐसी जवानी दो कि जिसके बाद कभी बुढ़ापा नहीं आये ।” अंत में महाराज हार मानकर और हाथ जोड़कर वहाँ से चल दिये । और अंत में उसे समझ आया कि यह संसार से कुछ नहीं चाहता है । यह अपनी आत्मा में ही खुश है ।

जो अपनी आत्मा को देखकर प्रसन्न होता है उसे बाहर में कहीं भी सुख नहीं दिखता है । और जो बाहर में सुख देखता है उसे अपनी आत्मा भी नहीं दिखाई देती है।

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प्रभु की भक्ति – Lord’s Worship

श्री अयोध्या जी में एक उच्च कोटि के संत रहते थे, इन्हें रामायण का श्रवण करने का व्यसन था ।
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जहां भी कथा चलती वहाँ बड़े प्रेम से कथा सुनते, कभी किसी प्रेमी अथवा संत से कथा कहने की विनती करते ।
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एक दिन राम कथा सुनाने वाला कोई मिला नहीं । वही पास से एक पंडित जी रामायण की पोथी लेकर जा रहे थे ।
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पंडित जी ने संत को प्रणाम् किया और पूछा की महाराज ! क्या सेवा करे ?
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संत ने कहा – पंडित जी , रामायण की कथा सुना दो परंतु हमारे पास दक्षिणा देने के लिए रुपया नहीं है, हम तो फक्कड़ साधु है । माला, लंगोटी और कमंडल के अलावा कुछ है नहीं और कथा भी एकांत में सुनने का मन है हमारा।
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पंडित जी ने कहा – ठीक है महाराज, संत और कथा सुनाने वाले पंडित जी दोनों सरयू जी के किनारे कुंजो में जा बैठे ।
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पंडित जी और संत रोज सही समय पर आकर वहाँ विराजते और कथा चलती रहती ।
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संत बड़े प्रेम से कथा श्रवण करते थे और भाव विभोर होकर कभी नृत्य करने लगते तो कभी रोने लगते।
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जब कथा समाप्त हुई तब संत में पंडित जी से कहा – पंडित जी, आपने बहुत अच्छी कथा सुनायी ।
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हम बहुत प्रसन्न है, हमारे पास दक्षिणा देने के लिए रूपया तो नहीं है परंतु आज आपको जो चाहिए वह आप मांगो ।
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संत सिद्ध कोटि के प्रेमी थे, श्री सीताराम जी उनसे संवाद भी किया करते थे ।
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पंडित जी बोले – महाराज हम बहुत गरीब है, हमें बहुत सारा धन मिल जाये ।
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संत बोले – संत ने प्रार्थना की की प्रभु इसे कृपा कर के धन दे दीजिये ।
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भगवान् ने मुस्कुरा दिया, संत बोले – तथास्तु ।
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फिर संत ने पूछा – मांगो और क्या चाहते हो ? पंडित जी बोले – हमारे घर पुत्र का जन्म हो जाए ।
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संत ने पुनः प्रार्थना की और श्रीराम जी मुस्कुरा दिए । संत बोले – तथास्तु, तुम्हे बहुत अच्छा ज्ञानी पुत्र होगा ।
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फिर संत बोले और कुछ माँगना है तो मांग लो । पंडित जी बोले – श्री सीताराम जी की अखंड भक्ति, प्रेम हमें प्राप्त हो ।
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संत बोले – नहीं ! यह नहीं मिलेगा ।
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पंडित जी आश्चर्य में पड़ गए की महात्मा क्या बोल गए । पंडित जी ने पूछा – संत भगवान् ! यह बात समझ नहीं आयी ।
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संत बोले – तुम्हारे मन में प्रथम प्राथमिकता धन, सम्मान, घर की है । दूसरी प्राथमिकता पुत्र की है और अंतिम प्राथमिकता भगवान् के भक्ति की है ।
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जब तक हम संसार को, परिवार, धन, पुत्र आदि को प्राथमिकता देते है तब तक भक्ति नहीं मिलती ।
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भगवान् ने जब केवट से पूछा की तुम्हे क्या चाहिए ? केवट ने कुछ नहीं माँगा ।
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प्रभु ने पूछा – तुम्हे बहुत सा धन देते है, केवट बोला नहीं ।

प्रभु ने कहा – ध्रुव पद ले लो ,केवट बोला – नहीं । इंद्र पद, पृथ्वी का राजा, और मोक्ष तक देने की बात की परंतु केवट ने कुछ नहीं लिया तब जाकर प्रभु ने उसे भक्ति प्रदान की ।

हनुमान जी को जानकी माता ने अनेको वरदान दिए – बल, बुद्धि, सिद्धि, अमरत्व आदि परंतु उन्होंने कुछ प्रसन्नता नहीं दिखाई ।

अंत में जानकी जी ने श्री राम जी का प्रेम, अखंड भक्ति का वर दिया ।

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दस पवित्र पक्षी – 10 Sacred Birds

दस पवित्र पक्षी और उनका रहस्य


आइये जाने उन दस दिव्य और पवित्र पक्षीयों के बारे मैं जिनका हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है…

हंस

जब कोई व्यक्ति सिद्ध हो जाता है तो उसे कहते हैं कि इसने हंस पद प्राप्त कर लिया और जब कोई समाधिस्थ हो जाता है, तो कहते हैं कि वह परमहंस हो गया। परमहंस सबसे बड़ा पद माना गया है।

हंस पक्षी प्यार और पवित्रता का प्रतीक है। यह बहुत ही विवेकी पक्षी माना गया है। आध्यात्मिक दृष्टि मनुष्य के नि:श्वास में ‘हं’ और श्वास में ‘स’ ध्वनि सुनाई पड़ती है। मनुष्य का जीवन क्रम ही ‘हंस’ है क्योंकि उसमें ज्ञान का अर्जन संभव है। अत: हंस ‘ज्ञान’ विवेक, कला की देवी सरस्वती का वाहन है। यह पक्षी अपना ज्यादातर समय मानसरोवर में रहकर ही बिताते हैं या फिर किसी एकांत झील और समुद्र के किनारे।

हंस दांप‍त्य जीवन के लिए आदर्श है। यह जीवन भर एक ही साथी के साथ रहते हैं। यदि दोनों में से किसी भी एक साथी की मौत हो जाए तो दूसरा अपना पूरा जीवन अकेले ही गुजार या गुजार देती है। जंगल के कानून की तरह इनमें मादा पक्षियों के लिए लड़ाई नहीं होती। आपसी समझबूझ के बल पर ये अपने साथी का चयन करते हैं। इनमें पारिवारिक और सामाजिक भावनाएं पाई जाती है।

हिंदू धर्म में हंस को मारना अर्थात पिता, देवता और गुरु को मारने के समान है। ऐसे व्यक्ति को तीन जन्म तक नर्क में रहना होता है।

मोर

मोर को पक्षियों का राजा माना जाता है। यह शिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन है। भगवान कृष्ण के मुकुट में लगा मोर का पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। यह भारत का राष्ट्रीय पक्षी है।

अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊंचा दर्जा दिया गया है। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है।

कौआ

कौए को अतिथि-आगमन का सूचक और पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। इसकी उम्र लगभग 240 वर्ष होती है। श्राद्ध पक्ष में कौओं का बहुत महत्व माना गया है। इस पक्ष में कौओं को भोजना कराना अर्थात अपने पितरों को भोजन कराना माना गया है। कौए को भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पहले से ही आभास हो जाता है।

उल्लू

उल्लू को लोग अच्छा नहीं मानते और उससे डरते हैं, लेकिन यह गलत धारणा है। उल्लू लक्ष्मी का वाहन है। उल्लू का अपमान करने से लक्ष्मी का अपमान माना जाता है। हिन्दू संस्कृति में माना जाता है कि उल्लू समृद्धि और धन लाता है।

भारत वर्ष में प्रचलित लोक विश्वासों के अनुसार भी उल्लू का घर के ऊपर छत पर स्थि‍त होना तथा शब्दोच्चारण निकट संबंधी की अथवा परिवार के सदस्य की मृत्यु का सूचक समझा जाता है। सचमुच उल्लू को भूत-भविष्य और वर्तमान में घट रही घटनाओं का पहले से ही ज्ञान हो जाता है।

वाल्मीकि रामायण में उल्लू को मूर्ख के स्थान पर अत्यन्त चतुर कहा गया। रामचंद्र जी जब रावण को मारने में असफल होते हैं और जब विभीषण उनके पास जाते हैं, तब सुग्रीव राम से कहते हैं कि उन्हें शत्रु की उलूक-चतुराई से बचकर रहना चाहिए। ऋषियों ने गहरे अवलोकन तथा समझ के बाद ही उलूक को श्रीलक्ष्मी का वाहन बनाया था।

गरूड़

इसे गिद्ध भी कहा जाता है। पक्षियों में गरूढ़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समझदार और बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है। गरूड़ के नाम पर एक पुराण भी है गरूड़ पुराण। यह भारत का धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है।

गरूड़ के बारे में पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु की सवारी और भगवान राम को मेघनाथ के नागपाश से मुक्ति दिलाने वाले गरूड़ के बारे में कहा जाता है कि यह सौ वर्ष तक जीने की क्षमता रखता है।

नीलकंठ

नीलकंड को देखने मात्र से भाग्य का दरवाजा खुल जाता है। यह पवित्र पक्षी माना जाता है। दशहरा पर लोग इसका दर्शन करने के लिए बहुत ललायित रहते हैं।

तोता

तोते का हरा रंग बुध ग्रह के साथ जोड़कर देखा जाता है। अतः घर में तोता पालने से बुध की कुदृष्टि का प्रभाव दूर होता है। घर में तोते का चित्र लगाने से बच्चों का पढ़ाई में मन लगता है।

आपने बहुत से तोता पंडित देखें होंगे जो भविष्यवाणी करते हैं। तोते के बारे में बहुत सारी कथाएं पुराणों में मिलती है। इसके अलवा, जातक कथाओं, पंचतंत्र की कथाओं में भी तोते को किसी न किसी कथा में शामिल किया गया है।

कबूतर

इसे कपोत कहते हैं। यह शांति का प्रतीक माना गया है। भगवान शिव ने जब अमरनाथ में पार्वती को अजर अमर होने के वचन सुनाए थे तो कबतरों के एक जोड़े ने यह वचन सुन लिए थे तभी से वे अजर-अमर हो गए। आज भी अमरनाथ की गुफा के पास ये कबूतर के जोड़े आपको दिखाई दे जाएंगे। कहते हैं कि सावन की पूर्णिमा को ये कबूतर गुफा में दिखाई पड़ते हैं। इसलिए कबूतर को महत्व दिया जाता है।

बगुला

आपने कहावत सुनी होगी बगुला भगत। अर्थात ढोंगी साधु। धार्मिक ग्रंथों में बगुले से जुड़ी अनेक कथाओं का उल्लेख मिलता है। पंत्रतंत्र में एक कहानी है बगुला भगत। बगुला भगत पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।

बगुला के नाम पर एक देवी का नाम भी है जिसे बगुलामुखी कहते हैं। बगुला ध्यान भी होता है अर्थात बगुले की तरह एकटक ध्यान लगाना। बगुले के संबंध में कहा जाता है कि ये जिस भी घर के पास ‍के किसी वृक्ष आदि पर रहते हैं वहां शांति रहती है और किसी प्रकार की अकाल मृत्यु नहीं होती।

गोरैया

भारतीय पौराणिक मान्यताओं अनुसार यह चिड़ियां जिस भी घर में या उसके आंगन में रहती है वहां सुख और शांति बनी रहती है। खुशियां उनके द्वार पर हमेशा खड़ी रहती है और वह घर दिनोदिन तरक्की करता रहता है।

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हमारा सांवरा दिलदार – Story of Krishna

एक उच्च कोटि के संत के श्री मुख से हमने सुना वो कह रहे थे….
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हमने 10 साल की आयु मे घर छोड़ा करीब 20 साल हम पैदल ही घूमते रहे !!
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पूरे भारतवर्ष के कोने कोने मे जा कर संतो से मिले व् ज्ञान प्राप्त किया !! .
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हमको हमारे गुरुजनों ने पैसा अपने पास रखने से मना किया था और ये भी कहा था की इस ज्ञान को बेचना नहीं !!
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अगर कोई देता भी तो गंगा जी मे या किसी नदी तालाब मे फैंक देते !!
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हमको एक दिन अचानक मन मे आया की हम कभी रेलगाड़ी मे नहीं बैठे…
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चलो आज रेल द्वारा ही सफ़र करते हैं…
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पर जब टिकेट चेकर आया उसने 2-4 गालियाँ दी हमको और गाडी से उतार दिया साथ मे कहा की…
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महाराज हट्टे कट्टे दीखते हो कुछ काम किया करो…
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कुछ पैसे जोड़ कर टिकेट खरीद कर ही रेल मे सफ़र किया करो !!
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हमको तो हर बात मे प्रभु की इच्छा ही दिखती थी…
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अगले स्टेशन पर हमको उतार दिया गया
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हमने पैदल चलना शुरू किया की इतने मे एक बहुत ही प्यारा गोल मटोल सा छोटा सा बच्चा आया बोला….
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ये लो टिकेट और अगली ट्रेन आएगी उसमे बैठ जाना !!
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हम उससे कुछ और पूछते वो इतनी देर मे जल्दी से भागता हुआ आँखों से ओझल हो गया !!
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पहली बार हमने सोचा ट्रेन मे बैठे किसी सज्जन ने टिकट भिजवा दी होगी…
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उसके बाद भी 2-3 बार ऐसा ही हुआ !!
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हमको शक सा हुआ की ये बच्चा हर जगह कैसे पहुँच जाता है….
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और टिकेट भी उसी जगह की कैसे दे जाता है जहां हमने जाना होता है !!
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हम तो ठहरे फक्कड़ संत हमको अपने प्रोग्रामे का खुद पता नहीं होता एक रात पहले की हम सुबह किधर को जायेंगे !!
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हमने एक बार ठाना की हम जगन्नाथ पुरी जायेंगे सुबह ही हम उत्तरप्रदेश से पैदल ही निकलने वाले थे!!
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सुबह जैसे ही हम निकले थोड़ी दूर वो ही प्यारा सा बच्चा सिर्फ पीली पीताम्बरी पहने हमारे पास आया व् हाथ पकड़ कर बोला ये लो टिकेट….
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हमने भी आज जैसे सोच रक्खा था उसका हाथ कस के पकड़ लिया व् पुछा की तुम कौन हो और तुमको कैसे पता की हमको जाना है???
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तुम्हारे पास पैसे कहाँ से आये कौन तुमको भेजता है ???
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वो बच्चा मुस्कराया और बोला बाबा मे वो ही हूँ जिसको तुम दिन रात रिझाते हो अपने भावो मे ….
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बाबा तुम्हारे अंतर मे जो छिपा है जो पूरे विश्व को चलाता है मे वो ही हूँ !!
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बाबा तुमने अपना सब भार मुझ पर छोड़ रक्खा है तो क्या मे तुम्हारा योगक्षेम वहन नहीं करूंगा !!
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बाबा कहते हैं काफी मीठे शब्द व् आत्मा
परमात्मा की एकता का ज्ञान करवा के वो बच्चा चला गया !!
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हम भी बहुत दिन वहीँ उसी जगह बेसुध पड़े रहे !!
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आज हम 92 साल के हो गए और शरीर छूटने को है….
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कहीं जाना हो या कुछ किसी साथी संत को जरूरत हो वो बच्चा आज भी उसी रूप मे टिकेट या भोजन या दवाई लेकर आ जाता है !!
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ये भी देखो हम वृद्ध हो गए पर वो बच्चा अभी भी बच्चा ही है उसकी न उम्र बड़ी हुई है न शक्ल बदली है !!
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कुछ समझे वो हमारा सांवर दिलदार ही है !!
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जरूरत है तो उस प्रभु पर विश्वास करने की…
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इंसान सोचता है की मे ही अपनी ताकत दिमाग व् मेहनत से सब कुछ खरीद या पा सकता हूँ….
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आप अपनी सोच बदलिए कर्म करते जाईये फल उस पर छोड़ दीजिये !!
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परम पूज्य श्री प्रभु दत्त ब्रह्मचारी जी महाराज संकीर्तन लगातार करते करवाते थे !!
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उनका रोम रोम संकीर्तन मय हो चुका था !!
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scientist and doctors ने एक्सपेरिमेंट किया उनके पूरे शरीर ,पर उनकी heart beat व् नब्ज पर instruments लगा दिए….
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जब उस ग्राफ को उन्होंने study किया तो सिर्फ और सिर्फ हर बार उनका मंत्र ही पाया
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श्री कृष्ण गोविन्द हरे.मुरारी
हे नाथ नारायण वासुदेव !

जय जय श्री राधे

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सुदर्शन चक्र के भय से भागे दुर्वासा

अम्बरीष बड़े धर्मात्मा राजा थे। उनके राज्य में बड़ी सुख शांति थी। धन, वैभव,राज्य, सुख, अधिकार, लोभ, लालच से दूर निश्चिन्त होकर वह अपना अधिकतर समय ईश्वर भक्ति में लगाते थे। अपनी सारी सम्पदा, राज्य आदि सब कुछ वे भगवान विष्णु की समझते थे। उन्हीं के नाम पर वह सबकी देखभाल करते और स्वयं भगवान के भक्त रूप में सरल जीवन बिताते। दान-पुण्य, परोपकार करते हुए उन्हें ऐसा लगता जैसे वह सब कार्य स्वयं भगवान उनके हाथों से सम्पन्न करा रहे है। उन्हें लगता था कि ये भौतिक सुख-साधना, सामग्री सब एक दिन नष्ट हो जाएगी, पर भगवान की भक्ति, उन पर विश्वास, उन्हें इस लोक, परलोक तथा सर्वत्र उनके साथ रहेगी। अम्बरीष की ऐसी विरक्ति तथा भक्ति से प्रसन्न हो भगवान श्री कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया था।

एक बार की बात है कि अम्बरीष ने एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान व्रत रखने का नियम बनाया। हर द्वादशी को व्रत करते। ब्राह्मणों को भोजन कराते तथा दान करते। उसके पश्चात अन्न, जल ग्रहण कर व्रत का पारण करते। एक बार उन्होंने वर्ष की अंतिम द्वादशी को व्रत की समाप्ति पर भगवान विष्णु की पूजा की। महाभिषेक की विधि से सब प्रकार की सामग्री तथा सम्पत्ति से भगवान का अभिषेक किया तथा ब्राह्मणों, पुरोहितों को भोजन कराया, खूब दान दिया।

ब्राह्मण-देवों की आज्ञा से जब व्रत की समाप्ति पर पारण करने बैठे ही थे तो अचानक महर्षि दुर्वासा आ पधारे। अम्बरीष ने खड़े होकर आदर से उन्हें बैठाया और भोजन करने के लिए प्रार्थना करने लगे।
दुर्वासा ने कहा-“भूख तो बड़ी जोर की लगी है राजन ! पर थोड़ा रुको, मैं नदी में स्नान करके आ रहा हूँ, तब भोजन करूँगा।” ऐसा कहकर दुर्वासा वहा से चले गए। वहां स्नान-ध्यान में इतना डूबे कि उन्हें याद ही न रहा कि अम्बरीष बिना उनको भोजन कराएं अपना व्रत का पारण नहीं करेंगे।

बहुत देर होने लगी। द्वादशी समाप्त होने जा रही थी। द्वादशी के रहते पारण न करने से व्रत खण्डित होता और उधर दुर्वासा को खिलाएं बिना पारण किया नहीं जा सकता था। बड़ी विकट स्थिति थी। अम्बरीष दोनों स्थितियों से परेशान थे। अंत में ब्राह्मणों ने परामर्श दिया कि द्वादशी समाप्त होने में थोड़ा ही समय शेष है। पारण द्वादशी तिथि के अंदर ही होना चाहिए। दुर्वासा अभी नहीं आए। इसीलिए राजन ! आप केवल जल पीकर पारण कर लीजिये। जल पीने से भोजन कर लेने का कोई दोष नहीं लगेगा और द्वादशी समाप्त न होने से व्रत खण्डित भी नहीं होगा।

शास्त्रो के विधान के अनुसार ब्राह्मणों की आज्ञा से उन्होंने व्रत का पारण कर लिया। अभी वह जल पी ही रहे थे कि दुर्वासा आ पहुंचे। दुर्वासा ने देखा कि मुझ ब्राह्मण को भोजन कराएं बिना अम्बरीष ने जल पीकर व्रत का पारण कर लिया। बस फिर क्या था, क्रोध में भरकर शाप देने के लिए हाथ उठाया ही था कि अम्बरीष ने विनयपूर्वक कहा-“ऋषिवर ! द्वादशी समाप्त होने जा रही थी। आप तब तक आए नहीं। वर्ष भर का व्रत खण्डित न हो जाए, इसीलिए ब्राह्मणों ने केवल जल ग्रहण कर पारण की आज्ञा दी थी। जल के सिवा मैने कुछ भी ग्रहण नहीं किया है।”

पर दुर्वासा क्रोधित हो जाने पर तो किसी की सुनते नहीं थे। अपनी जटा से एक बाल उखाड़कर जमीन पर पटक कर कहा-“लो, मुझे भोजन कराए बिना पारण कर लेने का फल भुगतो। इस बाल से पैदा होने वाली कृत्या ! अम्बरीष को खा जा।”

बाल के जमीन पर पड़ते ही एक भयंकर आवाज के साथ कृत्या राक्षसी प्रकट होकर अम्बरीष को खाने के लिए दौड़ी। भक्त पर निरपराध कष्ट आया देख उनकी रक्षा के लिए नियुक्त सुदर्शन चक्र सक्रिय हो उठा। चमक कर चक्राकार घूमते हुए कृत्या राक्षसी को मारा, फिर दुर्वासा की ओर बढ़ा।

भगवान के सुदर्शन चक्र को अपनी ओर आते देख दुर्वासा घबराकर भागे, पर चक्र उनके पीछे लग गया। कहां शाप देकर अम्बरीष को मारने चले थे, कहां उनकी अपनी जान पर आ पड़ी। चक्र से बचने के लिए वे भागने लगे। जहां कही भी छिपने का प्रयास करते, वहीं चक्र उनका पीछा करता।

भागते-भागते ब्रह्मलोक में ब्रह्मा के पास पहुंचे और चक्र से रक्षा करने के लिए गुहार लगाई। ब्रह्मा बोले-“दुर्वासा ! मैं तो सृष्टि को बनाने वाला हूं। किसी की मृत्यु से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। आप शिव के पास जाए, वे महाकाल है। वह शायद आपकी रक्षा करे।”

दुर्वासा शिव के पास आए और अपनी विपदा सुनाई। दुर्वासा की दशा सुनकर शिव को हंसी आ गई। बोले-“दुर्वासा ! तुम सबको शाप ही देते फिरते हो। ऋषि होकर क्रोध करते हो। मैं इस चक्र से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि यह विष्णु का चक्र है, इसलिए अच्छा हो कि तुम विष्णु के पास जाओ। वही चाहे तो अपने चक्र को वापस कर सकते है।”

दुर्वासा की जान पर आ पड़ी थी। भागे-भागे भगवान विष्णु के पास पहुंचे। चक्र भी वहां चक्कर लगाता पहुंचा। दुर्वासा ने विष्णु से अपनी प्राण-रक्षा की प्रार्थना की। विष्णु बोले-“दुर्वासा ! तुमने तप से अब तक जितनी भी शक्ति प्राप्त की, वह सब क्रोध तथा शाप देने में नष्ट करते रहे। तनिक सी बात पर नाराज होकर झट से शाप दे देते हो। तुम तपस्वी हो। तपस्वी का गुण-धर्म क्षमा करना होता है। तुम्हीं विचार करो, अम्बरीष का क्या अपराध था ? मैं तो अपने भक्तो के ह्रदय में रहता हूं। अम्बरीष के प्राण पर संकट आया तो मेरे चक्र ने उनकी रक्षा की। अब यह चक्र तो मेरे हाथ से निकल चुका है इसलिए जिसकी रक्षा के लिए यह तुम्हारे पीछे घूम रहा है, अब उसी की शरण में जाओ। केवल अम्बरीष ही इसे रोक सकते है।”

दुर्वासा भागते-भागते थक गए। भगवान विष्णु ने दुर्वासा को स्वयं नहीं बचाया, बल्कि उपाय बताया। दुर्वासा उल्टे पाँव फिर भागे और आए अम्बरीष के पास। अम्बरीष अभी भी बिना अन्न ग्रहण किए, उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दुर्वासा को देखते ही उनको प्रणाम कर बोले-“मुनिदेव ! मैं तब से आपकी प्रतीक्षा में बिना अन्न ग्रहण किए केवल वही जल पिया है, आप कहां चले गए थे ? दुर्वासा ने चक्र की ओर इशारा करके कहा-“अम्बरीष ! पहले इससे मेरी जान बचाओ। यह मेरे पीछे पड़ा है। तीनो लोको में मैं भागता फिरा, पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश किसी ने मेरी रक्षा नहीं की। अब तुम ही इस चक्र से मेरे प्राण बचाओ।”

अम्बरीष हाथ जोड़कर बोले-“मुनिवर ! आप अपना क्रोध शांत करे और मुझे क्षमा करे। भगवान विष्णु का यह चक्र भी आपको क्षमा करेगा।” अम्बरीष के इस कहते ही चक्र अन्तर्धान हो गया।

।। जय श्रीद्वारकाधीश नमः ।
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Spiritual

दुख से कैसे छूटें – Get Rid of Sufferings

दुख से सदा-सर्वदा के लिए कैसे छूटें…?

हर कोई दुख से छूटना चाहता है, सुख के तलाश में रहता है ।
लेकिन सुख बाजार में मिलने वाली चीज थोड़े है जिसे पैसा देकर खरीदा जा सके-

‘सुख खोजन को जग चला

सुख नहि हाट बिकात।’

सुख के लिए प्रयास करते रहने पर भी सुख नहीं मिलता, अथवा कम मिलता है, जितना चाहिये उतना नहीं मिलता।
और दुख के लिए कोई प्रयास नहीं करता फिर भी दुख मिलता ही रहता है, हर कोई दुखी होता है।

कहते हैं गर्भ में जीव को बहुत कष्ट मिलता है, और उसके बाद जन्म के समय असहनीय पीड़ा होती है, इसी तरह मृत्यु के समय भी असहनीय पीड़ा होती है।

गोस्वामीजी श्री तुलसी दास जी ने कहा भी है:-

“जनमत मरत दुसह दुख होई”

गर्भ के समय और जन्म के समय की पीड़ा किसी को याद नहीं रहती और मर जाने के बाद मरते समय की पीड़ा भी चली जाती है।

लेकिन जन्म और मृत्यु के बीच का समय जो जीवन कहलाता है, इसमें जीव को कितनी पीड़ा होती है।

कभी काम न बनने से, कभी बने हुए काम के बिगड़ जाने से पीड़ा होती है, मनोनुकूल काम न होने से पीड़ा होती है।

कभी किसी के बिछुड़ने से तो कभी किसी के मिलने से पीड़ा होती है, कभी रोग से, कभी शोक-संताप से पीड़ा होती है।

जीवन में पीड़ा अथवा दुख के ना जाने कितने अवसर आते रहते हैं।

यदि जीवन के सुख, शांति के अवसरों की तुलना दुख और अशांति के अवसरों से की जाए तो यही सामने आएगा कि सुख-शांति के अवसर कम और दुख-अशांति के अवसर ही ज्यादा है।

जीवन में भटकाव बहुत है, स्थिरता कम है, ऐसा लगता है जीवन पीड़ा सहने का ही दूसरा नाम है।

बचपन से लेकर अंत तक जीव कितनी बार दुखी होता है क्या कोई गिन सकता है, कितनी बार रोता है, कितनी बार कुछ पाने के लिए तरसता है, या कुछ खोकर रोता है।

आशांति में जीता हुआ शांति की आसा में जीवन समाप्त होता जाता है, फिर बुढ़ापे की पीड़ा जिसे कोई भी नहीं चाहता।

फिर जीवन मिलता है, फिर ऐसे ही जीवन जाता है, इन दुखों से सदा-सदा के लिए छुटुकारा कैसे मिलेगा?

दुख से सदा-सदा के लिए छूट जाने के लिए ही भगवान के शरणागति की जरूरत है, भक्ति की जरूरत है।

साधु, संत और सदग्रंथ कहते हैं कि बिना राम जी से जुड़े जीवन में दुख का अंत नहीं है, भटकाव रुकने वाला नहीं है, सच्ची शांति मिलने वाली नहीं है, इसलिए भगवान राम से जुड़ने की जरूरत है।

सच्चे मन से यदि कोई राम जी से जुड़ जाय तो फिर अशांति कहाँ और दुख कहाँ?

राम जी सारे संसार को विश्राम देने वाले हैं, सही विश्राम तो रामजी की शरणागति से ही मिल सकती है और कोई उपाय नहीं है।

॥ जय श्री सीताराम ॥

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रिक्शे वाला – Rickshaw Puller

एक बार एक अमीर आदमी कहीं जा रहा होता है तो उसकी कार ख़राब हो जाती है। उसका कहीं पहुँचना बहुत जरुरी होता है। उसको दूर एक पेड़ के नीचे एक रिक्शा दिखाई देता है। वो उस रिक्शा वाले पास जाता है। वहा जाकर देखता है कि रिक्शा वाले ने अपने पैर हैंडल के ऊपर रखे होते है। पीठ उसकी अपनी सीट पर होती है और सिर जहा सवारी बैठती है उस सीट पर होती है ।

और वो मज़े से लेट कर गाना गुन-गुना रहा होता है। वो अमीर व्यक्ति रिक्शा वाले को ऐसे बैठे हुए देख कर बहुत हैरान होता है कि एक व्यक्ति ऐसे बेआराम जगह में कैसे रह सकता है, कैसे खुश रह सकता है। कैसे गुन-गुना सकता है।

वो उसको चलने के लिए बोलता है। रिक्शा वाला झट से उठता है और उसे 20 रूपए देने के लिए बोलता है।

रास्ते में वो रिक्शा वाला वही गाना गुन-गुनाते हुए मज़े से रिक्शा खींचता है। वो अमीर व्यक्ति एक बार फिर हैरान कि एक व्यक्ति 20 रूपए लेकर इतना खुश कैसे हो सकता है। इतने मज़े से कैसे गुन-गुना सकता है। वो थोडा इर्ष्यापूर्ण हो जाता है और रिक्शा वाले को समझने के लिए उसको अपने बंगले में रात को खाने के लिए बुला लेता है। रिक्शा वाला उसके बुलावे को स्वीकार कर देता है।

वो अपने हर नौकर को बोल देता है कि इस रिक्शा वाले को सबसे अच्छे खाने की सुविधा दी जाए। अलग अलग तरह के खाने की सेवा हो जाती है। सूप्स, आइस क्रीम, गुलाब जामुन सब्जियां यानि हर चीज वहाँ मौजूद थी।

वो रिक्शा वाला खाना शुरू कर देता है, कोई प्रतिक्रिया, कोई घबराहट बयान नहीं करता। बस वही गाना गुन-गुनाते हुए मजे से वो खाना खाता है। सभी लोगो को ऐसे लगता है जैसे रिक्शा वाला ऐसा खाना पहली बार नहीं खा रहा है। पहले भी कई बार खा चुका है। वो अमीर आदमी एक बार फिर हैरान एक बार फिर इर्ष्यापूर्ण कि कोई आम आदमी इतने ज्यादा तरह के व्यंजन देख के भी कोई हैरानी वाली प्रतिक्रिया क्यों नहीं देता और वैसे कैसे गुन-गुना रहा है जैसे रिक्शे में गुन-गुना रहा था।

यह सब कुछ देखकर अमीर आदमी की इर्ष्या और बढती है।
अब वह रिक्शे वाले को अपने बंगले में कुछ दिन रुकने के लिए बोलता है। रिक्शा वाला हाँ कर देता है।

उसको बहुत ज्यादा इज्जत दी जाती है। कोई उसको जूते पहना रहा होता है, तो कोई कोट। एक बेल बजाने से तीन-तीन नौकर सामने आ जाते है। एक बड़ी साइज़ की टेलीविज़न स्क्रीन पर उसको प्रोग्राम दिखाए जाते है। और एयर-कंडीशन कमरे में सोने के लिए बोला जाता है।

अमीर आदमी नोट करता है कि वो रिक्शा वाला इतना कुछ देख कर भी कुछ प्रतिक्रिया नहीं दे रहा। वो वैसे ही साधारण चल रहा है। जैसे वो रिक्शा में था वैसे ही है। वैसे ही गाना गुन-गुना रहा है जैसे वो रिक्शा में गुन-गुना रहा था।

अमीर आदमी के इर्ष्या बढ़ती चली जाती है और वह सोचता है कि अब तो हद ही हो गई। इसको तो कोई हैरानी नहीं हो रही, इसको कोई फरक ही नहीं पढ़ रहा। ये वैसे ही खुश है, कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दे रहा।

अब अमीर आदमी पूछता है: आप खुश हैं ना?
वो रिक्शा वाला कहते है: जी साहेब बिलकुल खुश हूँ।

अमीर आदमी फिर पूछता है: आप आराम में हैं ना ?
रिक्शा वाला कहता है: जी बिलकुल आरामदायक हूँ।

अब अमीर आदमी तय करता है कि इसको उसी रिक्शा पर वापस छोड़ दिया जाये। वहाँ जाकर ही इसको इन बेहतरीन चीजो का एहसास होगा। क्योंकि वहाँ जाकर ये इन सब बेहतरीन चीजो को याद करेगा।

अमीर आदमी अपने सेक्रेटरी को बोलता है की इसको कह दो कि आपने दिखावे के लिए कह दिया कि आप खुश हो, आप आरामदायक हो। लेकिन साहब समझ गये है कि आप खुश नहीं हो आराम में नहीं हो। इसलिए आपको उसी रिक्शा के पास छोड़ दिया जाएगा।”

सेक्रेटरी के ऐसा कहने पर रिक्शा वाला कहता है: ठीक है सर, जैसे आप चाहे, जब आप चाहे।

उसे वापस उसी जगह पर छोड़ दिया जाता है जहाँ पर उसका रिक्शा था।

अब वो अमीर आदमी अपने गाड़ी के काले शीशे ऊँचे करके उसे देखता है।

रिक्शे वाले ने अपनी सीट उठाई बैग में से काला सा, गन्दा सा, मेला सा कपड़ा निकाला, रिक्शा को साफ़ किया, मज़े में बैठ गया और वही गाना गुन-गुनाने लगा।

अमीर आदमी अपने सेक्रेटरी से पूछता है: “कि चक्कर क्या है। इसको कोई फरक ही नहीं पड रहा इतनी आरामदायक वाली, इतनी बेहतरीन जिंदगी को ठुकरा के वापस इस कठिन जिंदगी में आना और फिर वैसे ही खुश होना, वैसे ही गुन-गुनाना।”

फिर वो सेक्रेटरी उस अमीर आदमी को कहता है: “सर यह एक कामियाब इन्सान की पहचान है। एक कामियाब इन्सान वर्तमान में जीता है, उसको मनोरंजन (enjoy) करता है और बढ़िया जिंदगी की उम्मीद में अपना वर्तमान खराब नहीं करता।

अगर उससे भी बढ़िया जिंदगी मिल गई तो उसे भी वेलकम करता है उसको भी मनोरंजन (enjoy) करता है उसे भी भोगता है और उस वर्तमान को भी ख़राब नहीं करता। और अगर जिंदगी में दुबारा कोई बुरा दिन देखना पड़े तो वो भी उस वर्तमान को उतने ही ख़ुशी से, उतने ही आनंद से, उतने ही मज़े से, भोगता है मनोरंजन करता है और उसी में आनंद लेता है।”

कामयाबी आपके ख़ुशी में छुपी है, और अच्छे दिनों की उम्मीद में अपने वर्तमान को ख़राब नहीं करें। और न ही कम अच्छे दिनों में ज्यादा अच्छे दिनों को याद करके अपने वर्तमान को ख़राब करना है।

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Religious Tips and Tricks

ईश्वर आराधना के नियम – Rules for Praying to God

अनेक लोगो को ये शिकायत रहती है कि, हमे तो पुजा पाठ करने का समय ही नही मिलता । बहुत से लोग कहते है कि हमारी आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण चाहकर भी पुजा नही कर पाते है।

ऐसे लोगो की परेशानी को ध्यान मे रखकर आज हम पुजा करने के कुछ तरीके बताना चाहते है, जो सबके लिए सरध एवं सुलभ है। जिसे करने मे आपका ना समय लगेगा और ना पैसे ही खर्च होंगे।
वस्तुतः भगवान को किसी वस्तु की आवश्यकता नही, वे तो भाव के भुखे है।आप उन्हे कुछ भी अर्पण करे या न करे, इससे उन्हे कोई फर्क नही पड़ता। सिर्फ आपका भाव समर्पण का होना जरूरी है।

1???? जिनके पास धन एवं समय दोनो का अभाव हो, वैसे लोग हर समय मन मे भगवान के नाम का जप कर सकते है। नाम जप करने के लिए किसी भी नियम की, शुद्धि अशुद्धि की या समय देखने की आवश्कता नही है। यह खाते पीते, सोते उठते, तथा हर काम करते हुए किया जा सकता है। जो पुरूष सब समय भगवान का स्मरण करते रहते है वो संसार सागर से तर जाते है।
( गीता 7/14 )

2???? जिनके पास थोड़ा समय तो है, पर धन का अभाव है। ऐसे लोग शास्त्रो मे वर्णित मानस पुजा कर सकते है। यह पुजा करने मे कुछ नियम का पालन करना होता है पर धन का खर्च बिल्कुल नही है।

मानस पुजा के नियम :-
सुबह मे स्नान आदि करने के बाद किसी शान्त जगह पर आसन लगाकर बैठ जाए और भगवान का ध्यान करें कि, सामने स्वर्ण सिंहासन पर भगवान विराजमान है । और हम उन्हे गंगाजल से, पंचामृत से स्नान करा रहे है। वस्त्राभूषण, चन्दन, पुष्प, धुप दीप, फल, जल, नैवेध आदि अर्पण कर उनकी आरती कर रहे है। इस पुजा के मंत्र भी पुराणो मे वर्णित है।

3???? जो लोग थोड़ा समय और धन खर्च कर सकते है, वो पंचोपचार विधि से पुजा करें । चंदन, फुल, धूप, दीप और नैवेध भगवान को अर्पण करे।

4???? जो लोग संपन्न है उन्हे षोड्सोपचार विधि से भगवान का पुजन करना चाहिए पाध, अर्ध्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, आभूषण, चंदन, फुल, धूप, दीप, नैवेध, आचमन, ताम्बुल, स्तवनपाठ, तर्पण और नमस्कार के द्वारा पुजन करे। संपन्न होते हुए भी गौण उपचारो से पुजा नही करनी चाहिए ।
भगवान का कथन है कि, जो भक्त प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल मुझे अर्पण करता है उसे मै सगुण रूप से प्रगट होकर खाता हुँ । ( गीता 9/26 )

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संगति, परिवेश और भाव – Company, Attire and Devotion

एक राजा अपनी प्रजा का भरपूर ख्याल रखता था. राज्य में अचानक चोरी की शिकायतें बहुत आने लगीं. कोशिश करने से भी चोर पकड़ा नहीं गया.
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हारकर राजा ने ढींढोरा पिटवा दिया कि जो चोरी करते पकडा जाएगा उसे मृत्युदंड दिया जाएगा. सभी स्थानों पर सैनिक तैनात कर दिए गए. घोषणा के बाद तीन-चार दिनों तक चोरी की कोई शिकायत नही आई.
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उस राज्य में एक चोर था जिसे चोरी के सिवा कोई काम आता ही नहीं था. उसने सोचा मेरा तो काम ही चोरी करना है. मैं अगर ऐसे डरता रहा तो भूखा मर जाउंगा. चोरी करते पकडा गया तो भी मरुंगा, भूखे मरने से बेहतर है चोरी की जाए.
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वह उस रात को एक घर में चोरी करने घुसा. घर के लोग जाग गए. शोर मचाने लगे तो चोर भागा. पहरे पर तैनात सैनिकों ने उसका पीछा किया. चोर जान बचाने के लिए नगर के बाहर भागा.
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उसने मुडके देखा तो पाया कि कई सैनिक उसका पीछा कर रहे हैं. उन सबको चमका देकर भाग पाना संभव नहीं होगा. भागने से तो जान नहीं बचने वाली, युक्ति सोचनी होगी.
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चोर नगर से बाहर एक तालाब किनारे पहुंचा. सारे कपडे उतारकर तालाब मे फेंक दिया और अंधेरे का फायदा उठाकर एक बरगद के पेड के नीचे पहुंचा.
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बरगद पर बगुलों का वास था. बरगद की जड़ों के पास बगुलों की बीट पड़ी थी. चोर ने बीट उठाकर उसका तिलक लगा लिया ओर आंख मूंदकर ऐसे स्वांग करने बैठा जैसे साधना में लीन हो.
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खोजते-खोजते थोडी देर मे सैनिक भी वहां पहुंच गए पर उनको चोर कहीं नजर नहीं आ रहा था. खोजते खोजते उजाला हो रहा था ओर उनकी नजर बाबा बने चोर पर पडी.
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सैनिकों ने पूछा- बाबा इधर किसी को आते देखा है. पर ढोंगी बाबा तो समाधि लगाए बैठा था. वह जानता था कि बोलूंगा तो पकडा जाउंगा सो मौनी बाबा बन गया और समाधि का स्वांग करता रहा.
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सैनिकों को कुछ शंका तो हुई पर क्या करें. कही सही में कोई संत निकला तो ? आखिरकार उन्होंने छुपकर उसपर नजर रखना जारी रखा. यह बात चोर भांप गया. जान बचाने के लिए वह भी चुपचाप बैठा रहा.
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एक दिन, दो दिन, तीन दिन बीत गए बाबा बैठा रहा. नगर में चर्चा शुरू हो गई की कोई सिद्ध संत पता नही कितने समय से बिना खाए-पीए समाधि लगाए बैठै हैं. सैनिकों को तो उनके अचानक दर्शऩ हुए हैं.
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नगर से लोग उस बाबा के दर्शन को पहुंचने लगे. भक्तों की अच्छी खासी भीड़ जमा होने लगी. राजा तक यह बात पहुंच गई. राजा स्वयं दर्शन करने पहुंचे. राजा ने विनती की आप नगर मे पधारें और हमें सेवा का सौभाग्य दें.
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चोर ने सोचा बचने का यही मौका है. वह राजकीय अतिथि बनने को तैयार हो गया. सब लोग जयघोष करते हुए नगर में लेजा कर उसकी सेवा सत्कार करने लगे.
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लोगों का प्रेम और श्रद्धा भाव देखकर ढोंगी का मन परिवर्तित हुआ. उसे आभास हुआ कि यदि नकली में इतना मान-संम्मान है तो सही में संत होने पर कितना सम्मान होगा. उसका मन पूरी तरह परिवर्तित हो गया और चोरी त्यागकर संन्यासी हो गया.
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संगति, परिवेश और भाव इंसान में अभूतपूर्व बदलाव ला सकता है. रत्नाकर डाकू को गुरू मिल गए तो प्रेरणा मिली और वह आदिकवि हो गए. असंत भी संत बन सकता है, यदि उसे राह दिखाने वाला मिल जाए.
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अपनी संगति को शुद्ध रखिए, विकारों का स्वतः पलायन आरंभ हो जाएगा.

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अच्छाई-बुराई – Good and Bad

एक बार बुरी आत्माओं ने भगवान से शिकायत की कि उनके साथ इतना बुरा व्यवहार क्यों किया जाता है, जबकी अच्छी आत्माएँ इतने शानदार महल में रहती हैं और हम सब खंडहरों में, आखिर ये भेदभाव क्यों है, जबकि हम सब भी आप ही की संतान हैं।

भगवान ने उन्हें समझाया- ”मैंने तो सभी को एक जैसा ही बनाया पर तुम ही अपने कर्मो से बुरी आत्माएं बन गयीं। सो वैसा ही तुम्हारा घर भी हो गया।“

भगवान के समझाने पर भी बुरी आत्माएँ भेदभाव किये जाने की शिकायत करतीं रहीं और उदास होकर बैठ गयी।

इसपर भगवान ने कुछ देर सोचा और सभी अच्छी-बुरी आत्माओं को बुलाया और बोले- “बुरी आत्माओं के अनुरोध पर मैंने एक निर्णय लिया है, आज से तुम लोगों को रहने के लिए मैंने जो भी महल या खँडहर दिए थे वो सब नष्ट हो जायेंगे, और अच्छी और बुरी आत्माएं अपने अपने लिए दो अलग-अलग शहरों का निर्माण नए तरीके से स्वयं करेंगी।”

तभी एक आत्मा बोली- “ लेकिन इस निर्माण के लिए हमें ईंटें कहाँ से मिलेंगी?”

भगवान बोले- “जब पृथ्वी पर कोई इंसान अच्छा या बुरा कर्म करेगा तो यहाँ पर उसके बदले में ईंटें तैयार हो जाएंगी। सभी ईंटें मजबूती में एक सामान होंगी, अब ये तुम लोगों को तय करना है कि तुम अच्छे कार्यों से बनने वाली ईंटें लोगे या बुरे कार्यों से बनने वाली ईंटें!”

बुरी आत्माओं ने सोचा, पृथ्वी पर बुराई करने वाले अधिक लोग हैं इसलिए अगर उन्होंने बुरे कर्मों से बनने वाली ईंटें ले लीं तो एक विशाल शहर का निर्माण हो सकता है, और उन्होंने भगवान से बुरे कर्मों से बनने वाली ईंटें मांग ली।

दोनों शहरों का निर्माण एक साथ शुरू हुआ, पर कुछ ही दिनों में बुरी आत्माओं का शहर वहाँ रूप लेने लगा, उन्हें लगातार ईंटों के ढेर के ढेर मिलते जा रहे थे और उससे उन्होंने एक शानदार महल बहुत जल्द बना भी लिया। वहीँ अच्छी आत्माओं का निर्माण धीरे-धीरे चल रहा था, काफी दिन बीत जाने पर भी उनके शहर का केवल एक ही हिस्सा बन पाया था।

कुछ दिन और ऐसे ही बीते, फिर एक दिन अचानक एक अजीब सी घटना घटी। बुरी आत्माओं के शहर से ईंटें गायब होने लगीं… दीवारों से, छतों से, इमारतों की नीवों से,… हर जगह से ईंटें गायब होने लगीं और देखते ही देखते उनका पूरा शहर खंडहर का रूप लेने लगा।

परेशान आत्माएं तुरंत भगवान के पास भागीं और पुछा- “हे प्रभु! हमारे महल से अचानक ये ईंटें क्यों गायब होने लगीं …हमारा महल और शहर तो फिर से खंडहर बन गया?”

भगवान मुस्कुराये और बोले- “ईंटें गायब होने लगीं!! अच्छा! दरअसल जिन लोगों ने बुरे कर्म किए थे अब वे उनका परिणाम भुगतने लगे हैं यानी अपने बुरे कर्मों से उबरने लगीं हैं उनके बुरे कर्म और उनसे उपजी बुराइयाँ नष्ट होने लगे हैं। सो उनकी बुराइयों से बनी ईंटें भी नष्ट होने लगीं हैं। आखिर को जो आज बना है वह कल नष्ट भी होगा ही। अब किसकी आयु कितनी होगी ये अलग बात है।“

इस तरह से बुरी आत्माओ ने अपना सिर पकड़ लिया और सिर झुका के वहा से चली गई|

इस कहानी से हमें कई ज़रूरी बातें सीखने को मिलती है, जो हम बचपन से सुनते भी आ रहे हैं पर शायद उसे इतनी गंभीरता से नहीं लेते:
बुराई और उससे होने वाला फायदा बढता तो बहुत तेजी से है। परंतु नष्ट भी उतनी ही तेजी से होता है।
वहीँ सच्चाई और अच्छाई से चलने वाले धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं पर उनकी सफलता स्थायी होती है. अतः हमें हमेशा सच्चाई की बुनियाद पर अपने सफलता की इमारत खड़ी करनी चाहिए, झूठ और बुराई की बुनियाद पर तो बस खंडहर ही बनाये जा सकते हैं।

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