रे मन वृन्दाविपिन निहार।।
यद्पि मिले कोटि चिंतामणि तदपि न हाथ पसार।।
विपिन राज सीमा के बाहर हरिहूँ को न निहार।।
जय श्री भट्ट धूरि धूसर तन, यह आसा उर धार।।
श्री भट्ट देवाचार्य”
अरे मन वृन्दावन की शोभा को निहार, यदि तुझे अनंत कोटि चिंतामणि भी मिलें, तो भी हाथ पसारकर वृन्दावन की सीमा से मत जा, यदि स्वयं श्री कृष्ण भी वृन्दावन की सीमा के बाहर मिलें तो भी उनको मत निहार, और अपने मन में एहि आशा रखो की वृन्दावन रज से ही ओत प्रोत रहे यह तन भी।